Saturday, April 9, 2011

मी अण्णा हज़ारे बोल्तोए....

इतिहास को बनते देखना, बदलते देखना और 9 अप्रैल की तारीख़ को इतिहास की किताब में आंखों के सामने दर्ज होते देखना किसी क्रांतिकारी फिल्म का पर्दे से निकलकर सार्थक होने जाने जैसा था। ये जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर अण्णा हज़ारे का जंतर-मंतर पर अनिश्चितकालीन अनशन था। अण्णा 5 अप्रैल से अनशन पर बैठे थे। और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कोई पहली बार नहीं बैठे थे। इससे पहले भी समाज के कमज़ोर वर्ग का ये समाजसेवी मसीहा किसन बापट बाबूराव हज़ारे, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 1995 से युद्ध के मैदान में है। बिना खड़ग, बिना ढाल। जिन्होने महात्मा गांधी को नहीं देखा उन्होने अण्णा हज़ारे को देखा। इस बार सत्याग्रह दिल्ली के जंतर-मंतर पर था। हालांकि इसपर दोराय हो सकती है क्योंकि आलोचनाओं का स्वागत करने की गुंजाइश हमेशा छोड़ देनी चाहिए। लेकिन फिर भी ये सच है कि जंतर-मंतर पर पूरी दुनिया ने एक मैजिक शो होते देखा। सरकारी फ़ाइलों में 40 साल पहले ग़ायब हुआ एक बिल, बाबा अण्णा हज़ारे के छड़ी घुमाते ही बाहर निकल आया। शासन करने वाली सरकार बाबा की डुगडुगी के आगे झमूड़ा बन गई। अण्णा हज़ारे की पांचो मांगे सरकार ने मान ली। अण्णा के नेतृत्व में जनता की जीत हुई, देश की जीत हुई, लोकतंत्र की जीत हुई। ......लेकिन ये सब इतना आसान भी नहीं था। और ना ही इतना मुश्किल भी। बस भ्रष्टाचार के खिलाफ़ क़ानून की मांग को लेकर एक सकारात्मक शुरूआत की आवश्यकता थी, जो अण्णा ने दी। लेकिन अण्णा ही क्यों? अपनी योगशक्ति से दस-पंद्रह दिन भूखे रहकर अनशन करने का काम तो बाबा रामदेव भी कर सकते थे। ....कोई भी कर सकता था। इस देश में हज़ारों लोग नवरात्रों में नौ दिन उपवास रखते ही हैं। फिर अण्णा ने ऐसा क्या कमाल कर दिया जो इससे पहले और कोई नहीं कर पाया? इसका जवाब शायद ये हो सकता है कि अण्णा, मोह-माया, भोग-विलास और सत्ता मद से बहुत दूर हैं। अण्णा को भविष्य में कोई राजनैतिक पार्टी नहीं बनानी, बल्कि उन्हे तो देश की जनता को जोड़कर आज़ाद हिन्द फौज बनानी है। जो काम देश के बड़े-बड़े चतुर-चालाक नहीं कर पाए वो भोले-भाले अण्णा ने कर दिया। एक मंदिर के आहते में बने 8 बाई 10 के कमरे में रहने और बर्तनों के नाम पर एक थाली में खाने वाले अण्णा ने कमाल कर दिया। महात्मा गांधी भी शायद इसलिए ही कर पाए थे। अण्णा का अनशन प्रायोजित नहीं था। होता, तो शायद वो भी अभूतपूर्व होता। लेकिन नहीं था। मैंने अनशन के तीसरे दिन मैनेजमैंट गुरू अरिंदम चौधरी को भी अण्णा से मिलने के लिए धक्के खाते देखा, इस देश के आम आदमी से भी ज़्यादा दयनीय हालत में, जबकि इस देश के आम आदमी के लिए अण्णा से मिलना उतना ही आसान रहा जैसे किसी को अपने पिता से मिलना हो। अण्णा कभी भी मुद्दे को छोड़कर अन्य किसी शह से प्रभावित नहीं हुए और यही कारण है कि जो लोग कल तक अण्णा को जानते तक नहीं थे वो अपने नंगे बदन पर ‘मैं अण्णा हज़ारे हूं’ लिखकर घूम रहे थे। विशेषकर युवावर्ग। अपने बेहतर भविष्य के लिए विदेश की ओर टकटकी लगाए युवावर्ग को इसे देश के नागरिक होने का कर्तव्य याद दिलाकर इसे बेहतर बनाने की मुहिम का हिस्सा बनने पर मजबूर करना जीवट का काम है। अण्णा रातोंरात ही लोगों के रोल मॉडल नहीं बन गए। बल्कि ये करिशमा अण्णा के व्यक्तित्व से टपकते अनुभव और आंखों से झलकती ईमानदारी का था। ऐसा ही निःस्वार्थ नेतृत्व तो देश को चाहिए था, जो देश को अपनी महत्वाकांशा की अग्नि में ना झोंक दे। जो लोगों को न्याय की फोटू दिखाकर मूर्ख ना बनाए। मुझे जंतर-मंतर जाने का सौभाग्य अनशन के तीसरे दिन हुआ। सुबह आठ बजे से लाइव करना था। 8 अप्रैल की सुबह वहां पहुंचा तो किसी आम प्रदर्शन जैसा ही लगा वहां का माहौल। फिर जैसे-जैसे दिन के साथ अण्णा की मुहिम पर रंग चढ़ते देखा तो एक बार को मुझे भी लगा कि अण्णा कहीं ‘पीपली लाइव’ के नत्था तो नहीं बन रहे हैं? ‘अण्णा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’, जब तक सूरज-चांद रहेगा अण्णा तेरा नाम रहेगा...., और भी ना जाने कितने ही तुकबंदी के नारों से अटा पड़ा था माहौल। लेकिन जब लोगों से बात करनी शुरू की तो अहसास हुआ कि मैं शायद ग़लत सोच रहा था, ये भीड़ जुटाई नहीं गई है बल्कि ख़ुद-ब-ख़ुद जुटी है। कौन-कौन नहीं था उस भीड़ में। अण्णा ने किसी आमो-ख़ास को नहीं बुलाया था। अण्णा ने तो बस आवाज़ लगाई थी और कारवां बनता गया। हां, अण्णा के अनशन को भुनाने वालों की भी भरमार भी। अण्णा के साथ फ़ोटो खिंचाकर, उनके साथ मंच पर एक बार एंट्री मारकर, उनकी इस मुहिम में अपने दल-बल के साथ शामिल होकर कितने ही लोग और एनजीओ बहते पानी में हाथ धोने को बेताब थे। कई लोंगो के लिए जंतर-मंतर पहुंचना स्टेटस सिंबल बन गया था। कई महिलायें ब्यूटी पार्लर से सीधे अण्णा के अनशन स्थल पहुंचकर मीडिया को रिझाती मिलीं। कितने ही लड़के-लड़किया वहां डेटिंग कर रहे थे, पिकनिक मना रहे थे। सीधे-सपाट शब्दों में कितने ही लोग मधुर भंडारकर की ‘पेज थ्री’ को जीते हुए मिले। लेकिन इस सबके बावजूद सिक्के का दूसरा पहलू ज़्यादा प्रभावी साबित हुआ और वो ये कि लोग आए.... लोग जुड़े....। तिहत्तर साल के नॉन ग्लैमरस् अण्णा हज़ारे की एक आवाज़ पर भ्रष्टाचार जैसे थके हुए और घिसे-पिटे मुद्दे पर इकट्ठा हुए लोगों का ग़ुस्सा उनके चेहरों की तरह लिपापुता नहीं था, ये बड़ी बात थी। अगर भ्रष्टाचार को लाइलाज बीमारी बताकर झेलते रहने वालों को भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की उम्मीद बंधी है तो ये अण्णा के दृढ़संकल्प का ही परिणाम है। भ्रष्टाचार को लेकर इतने बड़े पैमाने पर लोगों का संगठित होना कई नकारात्मक आशंकाओं को धव्स्त करते हुए सफलता की गारंटी देता है। भ्रष्टाचार मिटेगा या नहीं ये बाद की बात है, अभी यही क्या कम है कि एक शुरूआत तो हुई। एक ठोस और सकारात्मक शुरूआत। अण्णा के विश्वास के संक्रमण से प्रभावित जनता ने कम से कम एक पत्थर तो तबियत से उछाला ही है। अण्णा के नेतृत्व में ये जनता के सहयोग से जनता की लड़ी गई सबसे बड़ी लड़ाई कही जा सकती है। सबसे बड़ी इसलिए क्योंकि ये लड़ाई किसी कॉर्पोरेट घराने के दमखम पर नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से जनता के आत्मबल से लड़ी गई है। हां, ये भी सच है कि हाल ही मिस्र में लड़ी गई जनता की लड़ाई के परिणाम से प्रभावित इस देश के लोगों को अपनी ताक़त पर यानि आम आदमी की ताक़त पर भी भरोसा हो गया। मीडिया की भी इस मुहिम में बड़ी ज़िम्मेदारी भरी भूमिका रही, ये अण्णा ने भी माना। मैंने पहली बार मीडिया को गाली देने वाले समाज को मीडिया की प्रशंसा करते देखा। फ़ेसबुक और ट्विटर जैसा सोशल नेटवर्किंग साइटस् ने भी इस आंदोलन को अभूतपूर्व बनाने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ी। देश में शायद पहली बार संचार माध्यमों का इतना सटीक इस्तेमाल होते देखा गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जनता की सबसे बड़ी लड़ाई में मिली ऐतिहासिक जीत के लम्हों का गवाह बनकर मैं गौरवांवित महसूस कर रहा हूं। अपने चैनल की तरफ से इस महाकवरेज का हिस्सा बनकर मैं भी इसमें शामिल रहा और वो भी अण्णा के इतने करीब, जंतर-मंतर पर रहकर। बस, अफ़सोस इस बात का रह गया कि लाइव कवरेज की व्यस्तता के चलते इस मुहिम के रंगों को अपने SLR कैमरे में क़ैद नहीं कर पाया। लेकिन हज़ारों कैमरों में ये ऐतिहासिक पल क़ैद हुए इसका संतोष ज़रूर है। अण्णा की कोशिशों से 9 अप्रैल की तारीख़ जनता की जीत के तौर पर इतिहास के पन्नों में दर्ज तो हो गई लेकिन याद तभी रखी जाएगी जब ये अलख जलती रहे। जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इसके बाद किसी आमरण और अनिश्चितकालीन अनशन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तभी सही मायनों में अण्णा की मुहिम अपने अंजाम तक पहुंचेगी। इस संकल्प के पौधे को यदि निरंतर नहीं सींचा गया तो ये मुरझाकर सूख भी जाएगा। इस जीत के जश्न में मकसद याद रखना होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एकजुट होने के लिए इस बार जैसे लोगों ने अपनी व्यस्तता के बीच भी समय निकाला है इसे अब उन्हे अपनी आदत बनाना होगा। लोकतंत्र की ये जीत आप सभी को मुबारक हो।

Friday, May 14, 2010

आदमी खाए पत्थर, पंजीरी उड़ाए कुत्ता

आदमी खाए पत्थर, पंजीरी उड़ाए कुत्ता
(अमर उजाला में 1 मई 2006 को प्रकाशित)

यह सुनकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है, किन्तु है सौ फ़ीसदी सच। आदमी मर रहा है, और वह भी कुत्ते की मौत। आदमी तो यों भी मर ही जाता और शायद किसी को पता भी नहीं चलता, लेकिन वह कुत्ते की मौत क्या मरा, ख़बर बन गई। यहां ख़बर आदमी की मौत न होकर आदमी का कुत्ते की मौत मरना है। ताज़ा सर्वेक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि आजकल आदमी कुत्ते की मौत ही मर रहे हैं और कुत्ते लाल और नीली बत्तियों की गाड़ियों में सैर-सपाटा कर रहे हैं। प्यास लगे, तो मिनिरल वॉटर और कोका-कोला पीते हैं। ख़ूबसूरत बालाओं से लेकर जार्ज बुश तक पुचकारे और सहलाए जाते हैं। दरअसल, कुत्तों की ज़िंदगी में यह बदलाव अचानक नहीं आया, बल्कि जब से कुत्तों का दखल राजनीति में बढ़ा है, तब से उनके दिन फिर गए हैं। अब वे इंसानों की तरह जीते हैं और इंसान, उनकी मौत मरते हैं।
वैसे अब वह दिन दूर नहीं, जब कुत्ता भी शहरों का घोषित राजा होगा। चूंकि कुत्ते आजकल नेताओं के सर्वाधिक सानिध्य में हैं, अतएव नेताओं से कुत्तों की घनिष्ठता का कुछ भी परिणाम सामने आ सकता है। मुझे कभी-कभी लगता है कि जंगल हमेशा से जंगल नहीं रहे होंगे, बल्कि किसी अच्छे-खासे शहर को कुछ नेताओं ने मिलकर पहले जंगल बनाया होगा और फिर शेर को जंगल का राजा बना दिया होगा। चूंकि अब शेर राजनीति के दूषित सच को भांप चुका है। शायद इसलिए शहर का रुख़ नहीं करता। यही कारण है कि आजकल कुत्ते राजनीति के झांसे में हैं। रही बात शहरों की तो वे तेज़ी से जंगल बनते ही जा रहे हैं। ऐसे में आदमी की तो बिसात ही क्या? वैसे आदमी का आदमी होना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। कभी-कभी सोचता हूं कि आदमी को कुत्ता होना चाहिए था और जिनको कुत्ता बनने से गुरेज़ है, वे काला किरण अथवा चिंकारा बन जाते। वर्तमान संदर्भों में आदमी में कुकुर प्रृवत्ति का होना ही उसके लिए सफलता की कुंजी है। वरना सरवाइव करना मुश्किल है। कुत्ते प्रगति पर हैं। वे सड़क से लेकर संसद तक को सूंघते फिर रहे हैं। आदमी कुत्तों की तुलना में बहुत पिछड़ गया है। जहां आदमी के राजनीतिक और सामाजिक सरोकार सीमित हो गए हैं, वहीं कुत्तों के राजनीतिक और सामाजिक सरोकार के दायरे बढ़े हैं। मेरी गली के कुत्ते अब किसी चुनावी रैली, जुलूस और भीड़ को देखकर नहीं भौंकते। अब वे सलीका सीख रहे हैं। वो जान चुके है कि उनकी एक प्रजाति राजघाट तक का निरीक्षण कर चुकी है। कुत्ते यों भी सुखी हैं कि उनको न बिजली से मलतब है, न पानी से। न रहने के लिए अपना घर चाहिए और न रोज़गार। बढ़ती महंगाई से कुत्तों की सेहत पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता।
कुत्ते सपने नहीं देखते। कोई मांग नहीं करते और न ही किसी से शिकायत करते हैं, शायद इसलिए भोग और विलास, दोंनो का सुखपान कर रहे हैं। समझ लीजिए कि अब वह दिन दूर नहीं, जब आदमी के गले में पट्टा होगा और कुत्तों के हाथों में ज़जीर। जंगलराज में कुत्तों का ही शासन होगा। तब भूगोल व जीव विज्ञान से संबंधित तमाम चैनल आदमी पर वृतचित्र बनाएंगे। वो दिखाया करेंगे कि कैसे जंगल की विपरीत परिस्थितियों में भी आदमी की दुर्लभ प्रजाति ख़ुद को बचाए रखने के लिए संघर्षरत है। आदमी यहां पत्थर खाता है और कुत्ते पंजीरी उड़ाते है। कुत्ते कुत्ते होकर भी ठाठ-बाट से हैं और आदमी, आदमी होकर भी कुत्तों की मौत मर रहा है।

Wednesday, August 19, 2009

- खां साहब की वो गाली कभी नहीं भूलेगी....

स्मृतिशेष- बिस्मिल्लाह खां

मंगल ध्वनि से शोक धुन तक

-अनुराग मुस्कान

सन् दो हजार की बात है। ताजमहल के पार्श्व में एक म्यूजिकल टीवी शो की रिकार्डिंग चल रही थी। एक सदी की विदाई और दूसरी सदी के स्वागत की थीम पर आधारित इस कार्यक्रम में संगीत और सिनेमा जगत की कई जानी-मानी हस्तियां शिरकत कर रही थीं। मैं, अन्य लोगों के साथ इस कार्यक्रम की यूनीट को स्थानीय स्तर पर सहयोग कर रहा था। इस कार्यक्रम की शूटिंग में एक दिन शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत गायन और वादन की प्रस्तुतियों के लिए तय कर दिया गया था। इसमें शास्त्रीय संगीत में गायन और वादन से जुड़ी तमाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हस्तियों के साथ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब की प्रस्तुति भी होनी थी। दर्शक दीर्घा में भीड़ कुछ उद्दंड थी। संभवतः मनमोहक नृत्य अथवा सुगम संगीत प्रस्तुतियों की उम्मीद में बैठे लोग शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों को हजम नहीं कर पा रहे थे और कलाकारों द्वारा बार-बार तवज्जो की गुजारिश के बावजूद लगभग सभी को हूट कर रहे थे। ऐसे में उस्ताद की बारी आई। उस्ताद ने किसी से तवज्जो की भीख नहीं मांगी बल्कि मंच पर आते ही बड़ी शालीनता के साथ माइक संभाला और बोले, 'मैं ज्यादा तो बोलता नहीं, शहनाई की जुबान जानता हूं, बस इतना ही कहना चाहता हूं की मेरा नाम बिस्मिल्लाह खां है, माफी चाहूंगा मैं अब शहनाई बजाने जा रहा हूं, आप चाहें तो कानों में रुई ठूंस सकते हैं।' उस्ताद के इतना कहते ही सन्नाटा पसर गया और फिर कम से कम उस्ताद की प्रस्तुति के दौरान कोई हो-हल्ला नहीं हुआ। यही नहीं कार्यक्रम के अंत में जब बेशुमार तालियां बजीं तो उस्ताद ने यही कहा कि, 'मुझ से पहले भी जो कलाकार आए उनकी प्रस्तुति मुझसे भी बेहतर थी लेकिन उनकी बदनसीबी रही कि आप उन्हे तवज्जो न दे सके।' मैंने दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों को पानी-पानी होते देखा। दर्शकों की भीड़ को नियंत्रित करने का जो काम आयोजक, सुरक्षाकर्मी और व्यवस्थापक नहीं कर पाए वह काम उस्ताद ने दो शब्द कह कर दिखाया। यकीन जानिए, यह उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ही कर सकते थे। इस संस्मरण को लिखने के बाद उनके व्यक्तित्व का विशलेषण करने आवश्यकता नहीं रह जाती।
उस्ताद के अंदर छिपे इंद्रधनुष को रेखांकित करना पृष्ठों पर संभव नहीं है। इसी कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मुझे कुछ दूर तक उस्ताद की व्हील चेयर चलाने का सौभाग्य भी मिला। दरअसल जमुना की रेत पर बने कृत्रिम रास्ते से उन्हे ताजमहल के पश्चिमी गेट पर तैनात वाहन तक छोड़ने जाने का मौका था यह। अपना परिचय देने और उनसे बात करने के उत्साह और क्रम में इतना तल्लीन हो गया कि फिर उस्ताद की डांट से ही तंत्रा भंग हुई। अबे साले, गड्डे में गिरा के जान लेगा क्या हमारी?' अगर उस्ताद न चीखते तो व्हील चेयर मेरी लापरवाही से रेत में बने एक गड्डे में गिर सकती थी। हालांकि उस्ताद की डांट में नानाजी और दादाजी सरीखा स्नेह था लेकिन फिर भी घबराहट में मेरे पसीने छूट गए। मैंने उस्ताद से माफी मांगी। उस्ताद मेरी हालत देखकर हंस पड़े। बोले, 'बेटा, हमारा क्या है, तुम लोग भले ही हमें गड्डे में डाल दो, हम वहां भी शहनाई बजाना नहीं छोडेंगे।', 'आपको चाहने वाले वहां भी आपको सुनने चले आएंगे सर।', मैंने गुस्ताखी ही सही लेकिन बड़ी हिम्मत करके उन्हे जवाब दिया। उस्ताद खुलकर हंस पड़े। मेरी जान में जान आई। लेकिन नौ साल बाद आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं तो उनकी इस बात का कि तुम लोग भले ही हमें गड्डे में डाल दो का मर्म समझ में आ रहा है। उन वजहों की तलाश करने को जी चाहता है जिनके चलते उस्ताद को उनकी सादगी का सिला नहीं मिला।
उस्ताद के सुपुर्द-ए-खाक होने पर इलाहाबाद के सुविख्यात शास्त्रीय गायक प्रो.रामआश्रय झा को सुन रहा था। चौदह साल की उम्र में उस्ताद ने इलाहबाद में ही अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी थी। उसके कुछ सालों बाद एक कार्यक्रम के लिए जब रामआश्रय जी उन्हे आमंत्रित करने वाराणसी पहुंचे तो उस्ताद की ओर से अपनी प्रस्तुति का पारिश्रमिक चालीस हजार रुपये मांगा गया लेकिन रामआश्रय जी के यह याद दिलाने पर कि यह वही मंच है जहां उस्ताद ने अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी थी और चूंकि इलाहाबाद के सुधि श्रोता उनके पुनः आगमन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, उस्ताद मुफ्त में शहनाई बजाने चल पड़े। उस्ताद की इसी जिंदादिली का आगे चल कर कुछ लोगों ने अवांछित लाभ भी उठाया। प्यार के दो बोल में बिक जाने वाले उस्ताद इस दुनिया से जाते वक़्त इसी तरह की कई शिकायतें भी दिल में जज्ब करके ले गए। कितने ही सरकारी कार्यक्रमों का पारिश्रमिक तो उस्ताद को मरते दम तक नहीं मिल सका, अपने कई साक्षात्कारों में उस्ताद इसके प्रति नाराजगी भी जाहिर करते रहे। उनके जाने के बाद भले ही झंडे आधे झुका दिए जाएं, राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर दिया जाए, उनकी याद में कागज पर लिखा शोक संदेश पढ़ने की औपचारिकता निभाई जाए मगर इस सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता कि जीते-जी सरकारों ने उस्ताद को नजरअंदाज किया। हालांकि सरकारी उपेक्षा से उस्ताद का कद जरा भी नहीं घटता। वह तो संगीत समझने वालों के मुरीद थे और सियासत करने वाले संगीत की भाषा क्या समझेंगे।
शहनाई की बात पर हमेशा उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब का नाम लिया गया लेकिन फिर भी मंदिर में बैठकर शहनाई बजाने वाले और गंगा के प्रवाह से जुगलबंदी करने वाले इस मुसलमान की बारी अपने समकालीन कलाकारों के मुकाबले सबसे बाद में आई। सर्वसुख-सुविधा संपन्न अपने समकालीन साथी कलाकारों की तुलना में उस्ताद हमेशा दयनीय हाल में रहे। उस्ताद चाहते तो अपने लिए बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर और क्या कुछ नहीं जुटा सकते थे। सिर्फ संगीत साधना को ही अपनी जिंदगी का मकसद बना देने के जुनून की यह एक मिसाल भी है। इसे बेमिसाल कहें तो शायद ज्यादा उपयुक्त रहेगा। इंडिया गेट पर एक बार शाहनाई बजाने की हसरत उस्ताद अपने साथ ही ले गए, इसे उस्ताद का नहीं, इस देश का दुर्भाग्य कहा जाएगा। कोई कलाकार अपने से उम्र में बड़ा हो, बराबर का हो अथवा छोटा हो, खां साहब ने कभी उसकी तारीफ में कसीदे कढ़ने में देर नहीं की, फिर चाहे इसके लिए उन्हे उस कलाकार के पास खुद ही उठ कर क्यों न जाना पड़े। उस्ताद इस देश के हर आमो-खास के सुख-दुख के साथी रहे। छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त की सुबह का इस्तकबाल अपनी शहनाई से निकली मंगन ध्वनि से करने वाले और हर दुखःद पल पर शोक धुन बजा कर संबल देने वाले इस महान शहनाई वादक के जाने पर किसी ने कुछ नहीं बजाया, न तबला, न सारंगी, न सितार, न संतूर, न जलतरंग, न वीणा, न सरोद, न बांसुरी और न उस्ताद की पसंदीदा कजरी ही गाई। उनके जाने पर भी पृष्ठभूमि में उन्ही की शहनाई रोई। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां केवल शहनाई को ही बेवा नहीं कर गए बल्कि हर उस उम्मीद को बेवा कर गए जो उनसे बाबस्ता थीं।

-अनुराग मुस्कान
anuraagmuskaan@gmail.com

Saturday, April 14, 2007

कुत्ता मत कहो...प्लीज..!

कुत्ता मत कहो...प्लीज..!

रात्रिभोज के बाद हम लोग टीवी देख रहे थे। टीवी पर जयपुर से कुत्तों के सामूहिक विवाह समारोह की खबर आ रही थी। शादी का कार्ड भी दिखाया गया। लेडीज संगीत, मेहंदी की रस्म, पाणिग्रहण संस्कार, प्रीतिभोज और विदाई समारोह, सभी का कार्यक्रम था। बीच-बीच में कुत्तों के कोरियोग्राफर और ड्रेस डिजायनर बता रहे थे कि उन्होने कुत्तों को इंसान जैसा बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए गधों की तरह मेहनत की है। कुत्ते तीन महीने से अपने विवाह की तैयारी के लिए ट्रेनिंग पा रहे थे, इस दौरान उनके खाने पीने का मैन्यू भी प्री-डिसायडेड था। कुल मिला कर कुत्ते किसी रियलिटी शो के प्रतिभागियों जैसा ठाठ काट रहे थे। वह तो ऐन मौके पर हिन्दु रीति-रिवाजों के मखौल का हवाला देकर शिव सैनिकों ने इस समारोह के अभूतपूर्व होने में खलल डाल दिया, नतीजतन न जाने कितने ही कुत्ते कुंवारे रह गए। रात्रिभोज पर सपरिवार पधारे मेरे मित्र यह खबर देखकर इमोशनल हो गए, बोले- 'हमारा मार्शल भी इन डॉगीज् से कुछ कम नहीं है।', 'अच्छा, आपके कुत्ते का नाम मार्शल है।', मेरा इतना कहना था कि उनकी सुपुत्री ने मुझे कच्चा खा जाने वाली निगाहों से घूरते हुए गुर्राकर कहा, 'अंकल, मार्शल को कुत्ता मत कहिए...प्लीज! ही इज लाइक ऑवर फैमिली मेंबर।'
देख रहा हूं कि डॉगी लोग जब से फैमिली मेंबर बने हैं तब से कई फैमिली मेंबरों की स्थिति डॉगी जैसी हो गई है। एक बानगी देखिए। शहर में सर्कस लगा है। मम्मी-पापा, माइकल, स्वीटी और रैम्बो, सब सर्कस देखने जा रहे हैं। नाम सुन कर कनफ्यूज मत होइए, माइकल बड़े बेटे का नाम है, स्वीटी माइकल की छोटी बहन है और रैम्बो पालतू कुत्ता माफ कीजिएगा पैट डॉगी का शुभनाम है। घर में ताला नहीं लगा सकते। समय बहुत खराब चल रहा है। चोरी-डकैती का डर है। इसलिए घर की रखवाली के लिए बूढ़े और बीमार मां-बाप को छोड़े जा रहे हैं। डॉगी को सर्कस में साथ ले जाना भी जरूरी है क्योंकि वह स्वीटी के बगैर आधे घंटे भी नहीं रह सकता। दोनों एक ही कोल्ड ड्रिंक शेयर जो करते हैं। बड़ी मुश्किल से डीएम साहब के पीए से फोन करवा कर सर्कस के मैनेजर से रैम्बो को सर्कस पंडाल के अंदर ले जाने की परमीशन हासिल की है। रैम्बो सिर्फ सर्कस देखने ही नहीं बल्कि मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने भी इसी तरह जाता है।
मार्शल कह लीजिए या रैम्बो, कुत्ते आजकल स्टेटस सिंबल बन गए हैं। आपकी कार कितनी भी महंगी क्यों न हो वह तब तक बेकार है जब तक उसकी अधखुली खिड़की में से कोई झबरा, चपटा अथवा पुंछकटा कुत्ता अपना मुखमंडल बाहर निकाल कर पूरी दुनिया को जीभ न चिढ़ा रहा हो। अलसीशियन और पॉमेरीयन डॉगीज की जाति, वर्ग, बनावट, कद और काठी अपने मालिक की हैसियत का पैमाना है। औलाद भले ही अपने कर्मों से माता-पिता की नाक कटवा दे लेकिन किसी दुर्लभ विदेशी प्रजाति की ब्रीड के डॉगी अपने मालिक का सिर कभी शर्म से नहीं झुकने देते। और डॉगी अगर किसी दो दुर्लभ प्रजातियों की क्रास ब्रीड का हो तो मालिक को अपने होनहार बेटे से ज्यादा डॉगी पर गर्व हो सकता है।
मेरे एक मित्र निरंतर मुझे पर एक डॉगी पाल लेने का दबाव बनाते रहते हैं। मेरी सामाजिक मान्यता में वह एक डॉगी की कमी का हवाला देते हुए तर्क सहित कहते हैं, 'अपने चारों ओर नजरें घुमाइए जनाब, देखिए, आपके चारों ओर कूड़ा ही कूड़ा और गंदगी ही गंदगी है। अपनी बेफिक्री और लापरवाहियों के चलते आप इस प्रदूषित समाज में रहने के अभ्यस्त भी हो चुके हैं, ऐसे में एक विदेशी नस्ल का डॉगी ही आपको इस कूड़े के ढ़ेर से ऊपर उठा कर मैट्रोपालिटियन कल्चर की हाईप्रोफाइल सोसाइटी में सम्मानित दर्जा दिला सकता है।' अब दूसरे छोर पर बंधे डॉगी की जंजीर पकड़कर आप भवसागर पार कर सकते हैं।
वैसे भी डॉगी आजकल बहुत पहुंच वाले हो गए हैं। इंसान जब से इंसान के लिए समस्या बना है तब से डॉगी समाधान बन गए हैं। डॉगी लोग को खतरा सूंघने की जिम्मेदारी देकर ही तो हम और आप आतंकवाद की तरफ से बेफिक्र हो लिए हैं। नतीजा यह कि इंसान अब इंसान से ज्यादा डॉगी पर भरोसा करता है। खैर साहब, सबक यह लीजिए कि आज से गली के कुत्ते को भी कुत्ता मत कहिए, उसे डॉगी के संबोधन से पुकारिए क्योंकि जिस तेजी से इंसान कुतों को, मेरा मतलब है डॉगीज् को प्रमोट कर रहा है उसे देखकर लगता है कि वह दिन अब दूर नहीं जब कुत्तों के सामने लोकतंत्र की बसंती झमाझम नाचेगी और इंसानों का काम केवल ढ़फली बजाना रह जाएगा।

Thursday, April 12, 2007

सीडी की महिमा अपार रे...


सीडी की महिमा अपार रे...


राजनैतिक पार्टियां जिस उत्साह और उत्तेजना के साथ सीडी के धंधे में हाथ-पैर मार रही हैं उसे देखकर मुझे शाहरुख खान और बिग बी का भविष्य डावांडोल नजर आने लगा है। राजनैतिक पार्टियों से संबंधित सीडियां किसी भी सुपर हिट फिल्म से ज्यादा व्यवसाय कर रही हैं। राजनैतिक सीडियों में मुनाफे के अप्रत्याशित उछाल को देख मुझे तो यह भी डर है कि किसी रोज़ मुंबइया फिल्म निर्माता-निर्देशक फिल्में बनाना छोड़कर राजनैतिक पार्टियों के लिए सीडी न बनाने लग जाएं। आजकल सीडी में सैल्यूलाइड से ज्यादा ग्लैमर है। वैसे भी अपने शाहरुख खान और बिग बी को स्टार बनने के लिए लंबा-चौड़ा संघर्ष करना पड़ा था लेकिन इस मुई सीडी का कॉस्टिंग कॉउचाना अंदाज देखिए कि बंगारू लक्ष्मण और जूदेव से लेकर संजय जोशी तक रोतों-रात स्टार गए थे। सीडी ने राजनीति में न जाने कितने ही लोगों को स्टारडम दिया है। नतीजा यह कि आज प्रकाश जावड़ेकर और वैंकेया नायडू से ज्यादा लोग बंगारू लक्ष्मण, जूदेव, संजय जोशी आदि को जानते और पहचानते हैं। आम आदमी के जीवन में सीडी कि महत्ता केवल सीडी पर फिल्म देखने तक ही सीमित है, वह भी तब जब सीडी पाइरेटेड हो। दूसरी ओर राजनीति में सीडी बहुआयामी होने का दर्जा पा गई है। कह सकते हैं कि सीडी एक फायदे अनेक। सीडी के दांत, खाने के और दिखाने के और। आप सीडी देख और दिखा तो सकते ही है साथ ही सीडी को अचूक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल भी कर सकते हैं। सीडी न हुई ब्रम्हास्त्र हो गई। भूल गए आप, अपने मदनलाल खुराना साहब सीडी के दम पर ही चक्रधारी बन बैठे थे, उन्होने अपनी अंगुली में सीडी को सुर्दशन चक्र की तरह फंसाकर बीजेपी पे दे दनादन हमले किए थे। हालांकि वह बीजेपी का बिगाड़ कुछ नहीं पाए, अलबत्ता अपना पत्ता जरूर कटवा बैठे। आजकल सीडी भूलकर राजनीति की मचान पर चढ़ने की सीढ़ी ढूंढ़ रहे हैं। मुझे याद है पहले चुनाव के टाइम में मतगणना के दौरान पब्लिक को उलझाए रखने के लिए टीवी पर बीच-बीच में फिल्में दिखाई जाती थीं। यह ट्रेंड थोड़ा सा बदल गया लगता है, अब पब्लिक को उलझाने के लिए फिल्मों की जगह सीडियां दिखाई जाती हैं। जैसे उत्तरप्रदेश में चुनाव के दौरान बीजेपी ने दिखवाई है। वह तो सीडी पब्लिक तक पहुंचने से पहले ही उस पर चुनाव आयोग की कैंची चल गई वरना कुछ विलेन टाइप लोग बेवजह हीरो बन बैठते। अभी बीजेपी की सीडी की एबीसीडी भी ढंग से समझ नहीं आई थी कि एक खबरिया चैनल ने पैसा देकर टिकट खरीदते कुछ 'कद्दावर' नेताओं की सीडी उतार ली। अब चुनाव आयोग टेंशन में है। आचार संहिता का उल्लघंन करती पार्टियों से निपटे, चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराए या बैठे कर सीडी पर फिल्में देखे, क्या-क्या करे बेचारा। ऐसे में मेरा एक कीमती सुझाव काम दे सकता है, वह यह कि चुनाव के आसपास राजनैतिक पार्टियों के हैवी सीडी रिलीज को देखते हुए चुनाव आयोग को अपने विभाग में सेंसर बोर्ड की भी एक ईकाई भी गठित कर लेनी चाहिए। वैसे, सीडी के लाभ केवल राजनीति तक ही सीमित न रहें इसलिए इस नाचीज ने सीडी के कुछ और भी नायाब उपयोगों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है, नाचीज को लगता है कि सीडी भारतीय क्रिकेट के उत्थान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। क्रिकेट में सीडी के उपयोग क्रमवार इस प्रकार हैं- 1. सबसे पहले तो टीम इंडिया के हालिया मैचों की सीडी बनाकर क्रिकेट में भविष्य तलाश रहे बच्चों और युवाओं को बार-बार दिखानी चाहिए, जिससे वो अच्छी तरह समझ सकें की खराब क्रिकेट कैसे खेला जाता है और ऐसा खेलने से कैसे बचना चाहिए। इससे एक बार फिर क्रिकेट के अच्छे दिन लौटने की उम्मीद गर्भवती हो सकती है। 2. टीम के नए मैनेजर एवं कोच रवि शास्त्री को उन्ही के मैचों की पुरानी सीडियां दिखाई जाएं जिससे वह अपनी और टीम इंडिया वाली सीडी का तुलनात्मक अध्ययन करके समझ सकें की अब टीम इंडिया के खिलाड़ियों को कौन-कौन सी टिप्स नहीं देनी हैं। 3. इस वर्ल्ड कप के फाइनल वाले दिन उन्नीस सौ तिरासी के वर्ल्ड कप फाइनल की सीडी केबल आपरेटरों को इस अपील के साथ मुफ्त बंटवा दी जाए कि वह राष्ट्रहित में वर्ल्ड कप-2007 का प्रसारण बाधित करके वर्ल्ड कप-1983 की सीडी ही चलाएं। इससे क्रिकेट को लेकर खिलाडियों की मर चुकी आत्मा और क्रिकेट प्रशंसकों की मर चुकी उम्मीदों की आत्मा को थोड़ी शांति मिल सकेगी। अभी क्रिकेट में सीडी की महत्ता के प्रथम अध्याय तौर पर इतने ही सुझावों को अमल में लाकर अप्रत्याशित लाभ लिया जा सकता है। दूसरा अध्याय फिर कभी।
(आज नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)

Wednesday, April 11, 2007

.........हम बंदर ही अच्छे थे!

हम बंदर ही अच्छे थे

प्रिय पाठकों, उपरोक्त शीर्षक पूर्णतः मेरी निजी मान्यता है, हां, यह बात दीगर है कि अंत में मेरे विचारों से आप भी इत्तेफाक रखने लगें। आपकी तरह मैंने भी सुना है इंसान पहले बंदर था और मेरा मानना है कि बेहतर होता कि इंसान आज भी बंदर ही होता। काफी जद्दोजहद और ऊहापोह के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हम बंदर ही अच्छे थे। हम जब तक बंदर थे, लाइफ में कोई टेंशन नहीं थी। बस, बंदर से इंसान बनते ही सारी टेंशन शुरू हो गयी। आजकल आलम यह है कि बंदर, इंसानों की वजह से टेंशन में रहने लगे हैं और इंसान, बंदरों की वजह से। वैसे देखा जाए तो अपने बंदरकाल में स्थितियां और परिस्थितियां हमारे ज्यादा अनुकूल थीं। बंदर होकर जिस रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी की हमने कभी चिंता भी नहीं की, इंसान बनते ही, वही रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी हमारी मूलभूत समस्या बन गया। सही मायनों में स्वतंत्रता का रसास्वादन भी हमने बंदर रहते ही किया है। इंसान बनने के बाद वाली स्वतंत्रता तो हमारा भ्रम मात्र है। ठीक ऐसा ही हम लोकतंत्र के बारे में भी कह सकते हैं। हम बंदर थे तो कम से कम गुलाटी मारने पर तो हमारा एकाधिकार था, अब यह स्टंट भी राजनीतिज्ञों ने पेटेंट करा लिया है। नेताओं की गुलाटियां देखकर तो आजकल के बंदर भी गुलाटी मारना भूल गए हैं। दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिए कि गुलाटी पर बंदरों का ही एकाधिकार नहीं रहा। इधर, बुरा न बोलने, बुरा न सुनने और बुरा न देखने की परंपरा भी बंदरों से ही शुरू हुई और बंदरों पर ही खत्म भी हो गई। बंदरों से बुरा न बोलने, सुनने और देखने के संस्कार अगर इंसान ग्रहण करता तो कोई बात भी थी, अब बंदर बेचारा क्या बुरा बोलेगा, क्या बुरा सुनेगा और क्या बुरा देखेगा।
जरा सोचिए कि इंसान होकर हमने आखिर पाया ही क्या। जबकि बंदर रहते फायदा ही फायदा था। बंदर रहते हुए एक जो सबसे बड़ा फायदा था वह यह था कि मंहगाई चाहे जितनी बढ़ जाए, अपना एक धेले भर का खर्चा नहीं होता था। जंगल में स्वछंद गुलाटी मारते थे, कभी इस पेड़ पर तो कभी उस पेड़ पर। न नौकरी की चिंता, न रोटी की फिकर। आम तोड़ा आम खा लिया, अमरूद तोड़ा अमरूद खा लिया। केले के पेड़ों पर तो पुश्तैनी कब्जा रहता था अपना। विडंबना देखिए कि जो माल कभी अपना था, अब खरीदकर खाना पड़ता है। कुछ भी खरीरने के लिए पहले कमाना भी पड़ता है। अपनी खून-पसीने की कमाई पर टैक्स देना पड़ता है, सो अलग। टैक्स अदा करने के बाद तो कुछ खास इंसान ही आम खा पाते हैं, आम इंसान तो कुछ भी खाने से पहले बीस बार सोचता है। इस मामले में बंदर आज भी लकी हैं। आम, अमरूद और केले, जो भी मन करता है, ठेले से उठाकर भाग खड़े होते हैं। इंसानों ने बंदरों से भले ही कोई नसीहत न ली हो मगर बंदरों ने इंसान से छीना-छपटी का खेल बखूबी सीख लिया है। मेरा विश्वास है कि जो आज बंदर हैं वो कल निश्चित ही हमारी तरह इंसान बनेंगे।
हम जब बंदर थे तो सबकी एक ही भाषा थी- खी-खी,खी-खी, खों-खों,खों-खों। इंसान बनते ही हमने अपनी-अपनी अलग भाषा बना ली। भाषा भी ऐसी कि एक दूसरे की समझ से परे। बंदर थे तो सब एक बराबर थे न कोई छोटा, न कोई बड़ा, न कोई अमीर, न कोई गरीब, न कोई नेता, न कोई जनता। संसद की जरूरत भी हमें इंसान बनकर ही पड़ी, बंदर रहते हुए तो कभी हमें संसद की कमी महसूस नहीं हुई। हम बंदर होते तो शायद आरक्षण के बारे में सोचते तक नहीं, क्योंकि तब हमें आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होती। सब एक बराबर जो होते।
वैसे इंसान है बहुत चालाक। जिस बंदर से इंसान बना, इंसान बनते ही उसी बंदर को मदारी बनकर अपने इशारों पर नचाने लगा। कुछ होशियार किस्म के मदारी तो संसद तक जा पहुंचे और संसद में बैठकर अपने अलावा सभी को बंदर समझने लगे। यह इंसान मदारी होने का लाभ तो उठाते ही हैं, गुलाटी मार कर बंदर का हिस्सा भी गटक जाते हैं। बिजली विभाग की लापरवाही से लटकते बिजली के तार से उलझकर आज भी जब कोई बंदर अपनी जान गंवाता है तो इंसान पहले उसे चौराहे पर रखकर चंदा वसूलता है और अपनी जेब भरकर, मरे हुए बंदर को कूड़े में फेंककर चल देता है। आपने बंदर के हाथ में उस्त्रा वाली कहावत जरूर सुनी होगी। लेकिन यह कहावत वर्तमान संदर्भों में बंदरों पर प्रासंगिक नहीं रह गई है। इंसान से परेशान बंदरों के हाथ में उस्त्रा अगर आ भी गया तो वो उसे अपनी ही गर्दन पर चलाना बेहतर समझेंगे। अलबत्ता इंसान के हाथों में उस्त्रा इन दिनों कहीं ज्यादा खतरनाक है। अंततः मनुष्य योनि में व्याप्त आपाधापियों और अनिष्ट की आशंकाओं को देखते हुए कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हम बंदर ही अच्छे थे। आपका क्या ख्याल है?

Monday, April 9, 2007

घर बैठे बनिए ज्योतिषी- मुफ्त ज्योतिष गाइड

मुफ्त ज्योतिष गाइड

'टीम इंडिया सबको धोबी पटका देते हुए वर्ल्ड कप लेकर वापस आएगी।', ऐसी भविष्यवाणियां करके भविष्य बांचने का दावा करने वालों ने खूब कमाया। पूरी तो नहीं लेकिन उनकी आधी भविष्यवाणी जरूर सच साबित हुई, नतीजतन टीम इंडिया वापस लौट आई। कुल मिलाकर मैंने देखा है कि मामला चाहे जैसा भी हो, मसलन, टीम इंडिया के भविष्य से लेकर अभिषेक और एश्वर्या के वैवाहिक जीवन के भविष्य तक, भविष्य बांचने वालों की हर हार में पौ-बारह रहती है। इधर मुझे भविष्य बांचने के मामले में चकाचक फ्यूचर नजर आ रहा है।
अगर आप भी रोजगार के लिए पचासियों जगह जूते घिस-घिसकर परेशान हो चुके हैं तो निराश न हों बल्कि यूं समझें कि आपके भाग्य का सितारा बस चमकने ही वाला है। यह बात भी आपके सितारे ही बता रहे हैं। जी हां, सितारे बोलते भी हैं। बस सितारों की भाषा समझने वाला होना चाहिए। तो आपके सितारे कह रहे हैं कि हर तरफ से ठोकर खा चुके आप, हर तरफ से निराश हो चुके लोगों का भविष्य बांचने के धंधे में हाथ क्यों नहीं आजमाते। न हींग लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा आए। तो घर बैठे बन जाइए ज्योतिषाचार्य। आजकल भविष्यवक्ताओं के करियर में उछाल को देखते हुए आपके लिए भी प्रस्तुत है ज्योतिष गाइड वह भी बिलकुल मुफ्त-
सबसे पहले तो अपने दिल से यह डर निकाल दीजिए कि आप, जो अपना वर्तमान तक नहीं जानते वह लोगों का भविष्य क्या बांचेगा। देखिए, लोगों का भविष्य बांचने के लिए यह कतई जरूरी नहीं है कि आपके बाप या दादा कभी इस पेशे में रहे हों, आप डायरेक्ट भी इस धंधे में एंट्री ले सकते हैं। ज्योतिषाचार्य बनने के लिए आपको कहीं से डिग्री या डिप्लोमा लेने की जरूरत भी नहीं है और न ही कहीं से इसकी ट्रेनिंग ही लेनी है। यह तो विशुध्द रूप से बोलवचन देने और बकलोली करने धंधा है जिसे आप घर बैठे आसानी से अपनी गाढी और मोटी कमाई का जरिया बना सकते हैं। घर बैठे दौलत कमाने का पॉलिटिक्स के बाद यह दूसरा धंधा है। बल्कि इस धंधे में अगर आपकी दुकान चल निकली तो आप बडे से बडे पॉलिटिशियन की जेब की हजामत भी बना सकते हैं। उसे एमएलए, एमपी से होते हुए प्रधानमंत्री बनाने के सपने दिखाते-दिखाते, ग्रह-नक्षत्रों के शुध्दिकरण के नाम करवाते रहिए यज्ञ और हवन और लेते रहिए दक्षिणा। सबसे मजे की बात तो यह है कि अपनी गद्दी पर बैठकर आपको कुछ बोलना ही नहीं है, जो कुछ बोलेंगे वह सामने वाले के सितारे बोलेंगे। जो भी मन में आए बस सितारों के कंधे पर बात की बंदूक रखकर दाग दीजिए जातक के सीने में गोली। इस तरह इस व्यवसाय में आप किसी भी आरोप और दोष से भी सर्वथा मुक्त रहते हैं। किसी तरह की कोई हत्या गारंटी से गले नहीं पडती।
बस दो-चार मुख्य बातों का हमेशा ख्याल रखिए। गद्दी पर बैठकर थोड़े-थोड़ अंतराल पर आंखें बंद करके ऊपरवाले से कनेक्शन की सी मुद्रा बनाइए। जब जातक के टेढ़े सवाल का कोई जवाब नहीं सूझ रहा तो कह दीजिए कि अभी ऊपर से कोई जवाब नहीं आ रहा, इस सवाल का उत्तर देने का अभी उपयुक्त योग नहीं है। राहू, केतु, मंगल, शनि, सूर्य और बृहस्पति से खेलिए। इन गृहों का अपने मन मुताबिक एक दूसरे के घर में आवागमन और धुसपैंठ कराते रहिए। किसी को भारी किसी को हल्का बताइए। पंचाग सामने रखकर ध्यान लगाने के बहाने एक झपकी लेकर ग्रहों और नक्षत्रों की चाल पर टिप्पणी मार दीजिए। ऊंच, नीच, ढहीया, साढे साती और महादशा जैसी धुमावदार शब्दावली का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग कीजिए।
आप देखेंगे कि लोगों का भविष्य बांचते-बांचते आपका पीआर सॉलिड होने लगेगा। ऐसे में मौका देखकर किसी अखबार में राशिफल वाला नियमित कॉलम पकड लीजिए, और कहीं अगर किसी टीवी चैनल में आपकी सेटिंग जम गई तो समझिए कि आप पर उच्च का शनि फिदा हो गया है, आपके मंगल ने चंद्रमा से सांठगांठ कर ली है, आपका सूर्य आपके भाग्यघर में अपनी कोठी बना चुका है और राहु-केतु ने आपकी चाकरी करनी शुरू कर दी है। फिर तो लोगों का भविष्य बांचने के अलावा आप बे-रोकटोक खेल, राजनीति और मौसम पर भी अपने हवाई दावे ठोंक सकते हैं। निश्चिंत रहिए और विश्वास रखिए कि आपके द्वारा दी गई मौसम की जानकारी मौसम विभाग की जानकारी से कहीं ज्यादा सटीक होगी।
इतना सब करने के बाद आपको पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखना पडेगा। पीछे मुड़ कर न देखने में ही आपकी भलाई जो होगी। आप देखेंगे की बिलकुल नए धंधे में बगैर तैयारी के साथ उतरने से लूज हुआ आपका कॉन्फीडेंस, जातकों द्वारा की जा रही आपकी चरणवंदना से गेन होता रहेगा। अब आप बेखौफ होकर अपनी ज्यातिष की दुकान चला सकते हैं, और वैसे भी अपने भविष्य को लेकर आपका मुंह ताक रहे जातक की इतनी हिम्मत कहां कि आप जैसे ज्योतिषाचार्य की योग्यता पर ऊंगली उठा दे। जातक अगर इतना ही समझदार होता तो आपके चक्कर में ही क्या पड़ता।
(आज दैनिक भास्कर में प्रकाशित)