Saturday, April 14, 2007

कुत्ता मत कहो...प्लीज..!

कुत्ता मत कहो...प्लीज..!

रात्रिभोज के बाद हम लोग टीवी देख रहे थे। टीवी पर जयपुर से कुत्तों के सामूहिक विवाह समारोह की खबर आ रही थी। शादी का कार्ड भी दिखाया गया। लेडीज संगीत, मेहंदी की रस्म, पाणिग्रहण संस्कार, प्रीतिभोज और विदाई समारोह, सभी का कार्यक्रम था। बीच-बीच में कुत्तों के कोरियोग्राफर और ड्रेस डिजायनर बता रहे थे कि उन्होने कुत्तों को इंसान जैसा बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए गधों की तरह मेहनत की है। कुत्ते तीन महीने से अपने विवाह की तैयारी के लिए ट्रेनिंग पा रहे थे, इस दौरान उनके खाने पीने का मैन्यू भी प्री-डिसायडेड था। कुल मिला कर कुत्ते किसी रियलिटी शो के प्रतिभागियों जैसा ठाठ काट रहे थे। वह तो ऐन मौके पर हिन्दु रीति-रिवाजों के मखौल का हवाला देकर शिव सैनिकों ने इस समारोह के अभूतपूर्व होने में खलल डाल दिया, नतीजतन न जाने कितने ही कुत्ते कुंवारे रह गए। रात्रिभोज पर सपरिवार पधारे मेरे मित्र यह खबर देखकर इमोशनल हो गए, बोले- 'हमारा मार्शल भी इन डॉगीज् से कुछ कम नहीं है।', 'अच्छा, आपके कुत्ते का नाम मार्शल है।', मेरा इतना कहना था कि उनकी सुपुत्री ने मुझे कच्चा खा जाने वाली निगाहों से घूरते हुए गुर्राकर कहा, 'अंकल, मार्शल को कुत्ता मत कहिए...प्लीज! ही इज लाइक ऑवर फैमिली मेंबर।'
देख रहा हूं कि डॉगी लोग जब से फैमिली मेंबर बने हैं तब से कई फैमिली मेंबरों की स्थिति डॉगी जैसी हो गई है। एक बानगी देखिए। शहर में सर्कस लगा है। मम्मी-पापा, माइकल, स्वीटी और रैम्बो, सब सर्कस देखने जा रहे हैं। नाम सुन कर कनफ्यूज मत होइए, माइकल बड़े बेटे का नाम है, स्वीटी माइकल की छोटी बहन है और रैम्बो पालतू कुत्ता माफ कीजिएगा पैट डॉगी का शुभनाम है। घर में ताला नहीं लगा सकते। समय बहुत खराब चल रहा है। चोरी-डकैती का डर है। इसलिए घर की रखवाली के लिए बूढ़े और बीमार मां-बाप को छोड़े जा रहे हैं। डॉगी को सर्कस में साथ ले जाना भी जरूरी है क्योंकि वह स्वीटी के बगैर आधे घंटे भी नहीं रह सकता। दोनों एक ही कोल्ड ड्रिंक शेयर जो करते हैं। बड़ी मुश्किल से डीएम साहब के पीए से फोन करवा कर सर्कस के मैनेजर से रैम्बो को सर्कस पंडाल के अंदर ले जाने की परमीशन हासिल की है। रैम्बो सिर्फ सर्कस देखने ही नहीं बल्कि मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने भी इसी तरह जाता है।
मार्शल कह लीजिए या रैम्बो, कुत्ते आजकल स्टेटस सिंबल बन गए हैं। आपकी कार कितनी भी महंगी क्यों न हो वह तब तक बेकार है जब तक उसकी अधखुली खिड़की में से कोई झबरा, चपटा अथवा पुंछकटा कुत्ता अपना मुखमंडल बाहर निकाल कर पूरी दुनिया को जीभ न चिढ़ा रहा हो। अलसीशियन और पॉमेरीयन डॉगीज की जाति, वर्ग, बनावट, कद और काठी अपने मालिक की हैसियत का पैमाना है। औलाद भले ही अपने कर्मों से माता-पिता की नाक कटवा दे लेकिन किसी दुर्लभ विदेशी प्रजाति की ब्रीड के डॉगी अपने मालिक का सिर कभी शर्म से नहीं झुकने देते। और डॉगी अगर किसी दो दुर्लभ प्रजातियों की क्रास ब्रीड का हो तो मालिक को अपने होनहार बेटे से ज्यादा डॉगी पर गर्व हो सकता है।
मेरे एक मित्र निरंतर मुझे पर एक डॉगी पाल लेने का दबाव बनाते रहते हैं। मेरी सामाजिक मान्यता में वह एक डॉगी की कमी का हवाला देते हुए तर्क सहित कहते हैं, 'अपने चारों ओर नजरें घुमाइए जनाब, देखिए, आपके चारों ओर कूड़ा ही कूड़ा और गंदगी ही गंदगी है। अपनी बेफिक्री और लापरवाहियों के चलते आप इस प्रदूषित समाज में रहने के अभ्यस्त भी हो चुके हैं, ऐसे में एक विदेशी नस्ल का डॉगी ही आपको इस कूड़े के ढ़ेर से ऊपर उठा कर मैट्रोपालिटियन कल्चर की हाईप्रोफाइल सोसाइटी में सम्मानित दर्जा दिला सकता है।' अब दूसरे छोर पर बंधे डॉगी की जंजीर पकड़कर आप भवसागर पार कर सकते हैं।
वैसे भी डॉगी आजकल बहुत पहुंच वाले हो गए हैं। इंसान जब से इंसान के लिए समस्या बना है तब से डॉगी समाधान बन गए हैं। डॉगी लोग को खतरा सूंघने की जिम्मेदारी देकर ही तो हम और आप आतंकवाद की तरफ से बेफिक्र हो लिए हैं। नतीजा यह कि इंसान अब इंसान से ज्यादा डॉगी पर भरोसा करता है। खैर साहब, सबक यह लीजिए कि आज से गली के कुत्ते को भी कुत्ता मत कहिए, उसे डॉगी के संबोधन से पुकारिए क्योंकि जिस तेजी से इंसान कुतों को, मेरा मतलब है डॉगीज् को प्रमोट कर रहा है उसे देखकर लगता है कि वह दिन अब दूर नहीं जब कुत्तों के सामने लोकतंत्र की बसंती झमाझम नाचेगी और इंसानों का काम केवल ढ़फली बजाना रह जाएगा।

Thursday, April 12, 2007

सीडी की महिमा अपार रे...


सीडी की महिमा अपार रे...


राजनैतिक पार्टियां जिस उत्साह और उत्तेजना के साथ सीडी के धंधे में हाथ-पैर मार रही हैं उसे देखकर मुझे शाहरुख खान और बिग बी का भविष्य डावांडोल नजर आने लगा है। राजनैतिक पार्टियों से संबंधित सीडियां किसी भी सुपर हिट फिल्म से ज्यादा व्यवसाय कर रही हैं। राजनैतिक सीडियों में मुनाफे के अप्रत्याशित उछाल को देख मुझे तो यह भी डर है कि किसी रोज़ मुंबइया फिल्म निर्माता-निर्देशक फिल्में बनाना छोड़कर राजनैतिक पार्टियों के लिए सीडी न बनाने लग जाएं। आजकल सीडी में सैल्यूलाइड से ज्यादा ग्लैमर है। वैसे भी अपने शाहरुख खान और बिग बी को स्टार बनने के लिए लंबा-चौड़ा संघर्ष करना पड़ा था लेकिन इस मुई सीडी का कॉस्टिंग कॉउचाना अंदाज देखिए कि बंगारू लक्ष्मण और जूदेव से लेकर संजय जोशी तक रोतों-रात स्टार गए थे। सीडी ने राजनीति में न जाने कितने ही लोगों को स्टारडम दिया है। नतीजा यह कि आज प्रकाश जावड़ेकर और वैंकेया नायडू से ज्यादा लोग बंगारू लक्ष्मण, जूदेव, संजय जोशी आदि को जानते और पहचानते हैं। आम आदमी के जीवन में सीडी कि महत्ता केवल सीडी पर फिल्म देखने तक ही सीमित है, वह भी तब जब सीडी पाइरेटेड हो। दूसरी ओर राजनीति में सीडी बहुआयामी होने का दर्जा पा गई है। कह सकते हैं कि सीडी एक फायदे अनेक। सीडी के दांत, खाने के और दिखाने के और। आप सीडी देख और दिखा तो सकते ही है साथ ही सीडी को अचूक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल भी कर सकते हैं। सीडी न हुई ब्रम्हास्त्र हो गई। भूल गए आप, अपने मदनलाल खुराना साहब सीडी के दम पर ही चक्रधारी बन बैठे थे, उन्होने अपनी अंगुली में सीडी को सुर्दशन चक्र की तरह फंसाकर बीजेपी पे दे दनादन हमले किए थे। हालांकि वह बीजेपी का बिगाड़ कुछ नहीं पाए, अलबत्ता अपना पत्ता जरूर कटवा बैठे। आजकल सीडी भूलकर राजनीति की मचान पर चढ़ने की सीढ़ी ढूंढ़ रहे हैं। मुझे याद है पहले चुनाव के टाइम में मतगणना के दौरान पब्लिक को उलझाए रखने के लिए टीवी पर बीच-बीच में फिल्में दिखाई जाती थीं। यह ट्रेंड थोड़ा सा बदल गया लगता है, अब पब्लिक को उलझाने के लिए फिल्मों की जगह सीडियां दिखाई जाती हैं। जैसे उत्तरप्रदेश में चुनाव के दौरान बीजेपी ने दिखवाई है। वह तो सीडी पब्लिक तक पहुंचने से पहले ही उस पर चुनाव आयोग की कैंची चल गई वरना कुछ विलेन टाइप लोग बेवजह हीरो बन बैठते। अभी बीजेपी की सीडी की एबीसीडी भी ढंग से समझ नहीं आई थी कि एक खबरिया चैनल ने पैसा देकर टिकट खरीदते कुछ 'कद्दावर' नेताओं की सीडी उतार ली। अब चुनाव आयोग टेंशन में है। आचार संहिता का उल्लघंन करती पार्टियों से निपटे, चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराए या बैठे कर सीडी पर फिल्में देखे, क्या-क्या करे बेचारा। ऐसे में मेरा एक कीमती सुझाव काम दे सकता है, वह यह कि चुनाव के आसपास राजनैतिक पार्टियों के हैवी सीडी रिलीज को देखते हुए चुनाव आयोग को अपने विभाग में सेंसर बोर्ड की भी एक ईकाई भी गठित कर लेनी चाहिए। वैसे, सीडी के लाभ केवल राजनीति तक ही सीमित न रहें इसलिए इस नाचीज ने सीडी के कुछ और भी नायाब उपयोगों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है, नाचीज को लगता है कि सीडी भारतीय क्रिकेट के उत्थान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। क्रिकेट में सीडी के उपयोग क्रमवार इस प्रकार हैं- 1. सबसे पहले तो टीम इंडिया के हालिया मैचों की सीडी बनाकर क्रिकेट में भविष्य तलाश रहे बच्चों और युवाओं को बार-बार दिखानी चाहिए, जिससे वो अच्छी तरह समझ सकें की खराब क्रिकेट कैसे खेला जाता है और ऐसा खेलने से कैसे बचना चाहिए। इससे एक बार फिर क्रिकेट के अच्छे दिन लौटने की उम्मीद गर्भवती हो सकती है। 2. टीम के नए मैनेजर एवं कोच रवि शास्त्री को उन्ही के मैचों की पुरानी सीडियां दिखाई जाएं जिससे वह अपनी और टीम इंडिया वाली सीडी का तुलनात्मक अध्ययन करके समझ सकें की अब टीम इंडिया के खिलाड़ियों को कौन-कौन सी टिप्स नहीं देनी हैं। 3. इस वर्ल्ड कप के फाइनल वाले दिन उन्नीस सौ तिरासी के वर्ल्ड कप फाइनल की सीडी केबल आपरेटरों को इस अपील के साथ मुफ्त बंटवा दी जाए कि वह राष्ट्रहित में वर्ल्ड कप-2007 का प्रसारण बाधित करके वर्ल्ड कप-1983 की सीडी ही चलाएं। इससे क्रिकेट को लेकर खिलाडियों की मर चुकी आत्मा और क्रिकेट प्रशंसकों की मर चुकी उम्मीदों की आत्मा को थोड़ी शांति मिल सकेगी। अभी क्रिकेट में सीडी की महत्ता के प्रथम अध्याय तौर पर इतने ही सुझावों को अमल में लाकर अप्रत्याशित लाभ लिया जा सकता है। दूसरा अध्याय फिर कभी।
(आज नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)

Wednesday, April 11, 2007

.........हम बंदर ही अच्छे थे!

हम बंदर ही अच्छे थे

प्रिय पाठकों, उपरोक्त शीर्षक पूर्णतः मेरी निजी मान्यता है, हां, यह बात दीगर है कि अंत में मेरे विचारों से आप भी इत्तेफाक रखने लगें। आपकी तरह मैंने भी सुना है इंसान पहले बंदर था और मेरा मानना है कि बेहतर होता कि इंसान आज भी बंदर ही होता। काफी जद्दोजहद और ऊहापोह के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हम बंदर ही अच्छे थे। हम जब तक बंदर थे, लाइफ में कोई टेंशन नहीं थी। बस, बंदर से इंसान बनते ही सारी टेंशन शुरू हो गयी। आजकल आलम यह है कि बंदर, इंसानों की वजह से टेंशन में रहने लगे हैं और इंसान, बंदरों की वजह से। वैसे देखा जाए तो अपने बंदरकाल में स्थितियां और परिस्थितियां हमारे ज्यादा अनुकूल थीं। बंदर होकर जिस रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी की हमने कभी चिंता भी नहीं की, इंसान बनते ही, वही रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी हमारी मूलभूत समस्या बन गया। सही मायनों में स्वतंत्रता का रसास्वादन भी हमने बंदर रहते ही किया है। इंसान बनने के बाद वाली स्वतंत्रता तो हमारा भ्रम मात्र है। ठीक ऐसा ही हम लोकतंत्र के बारे में भी कह सकते हैं। हम बंदर थे तो कम से कम गुलाटी मारने पर तो हमारा एकाधिकार था, अब यह स्टंट भी राजनीतिज्ञों ने पेटेंट करा लिया है। नेताओं की गुलाटियां देखकर तो आजकल के बंदर भी गुलाटी मारना भूल गए हैं। दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिए कि गुलाटी पर बंदरों का ही एकाधिकार नहीं रहा। इधर, बुरा न बोलने, बुरा न सुनने और बुरा न देखने की परंपरा भी बंदरों से ही शुरू हुई और बंदरों पर ही खत्म भी हो गई। बंदरों से बुरा न बोलने, सुनने और देखने के संस्कार अगर इंसान ग्रहण करता तो कोई बात भी थी, अब बंदर बेचारा क्या बुरा बोलेगा, क्या बुरा सुनेगा और क्या बुरा देखेगा।
जरा सोचिए कि इंसान होकर हमने आखिर पाया ही क्या। जबकि बंदर रहते फायदा ही फायदा था। बंदर रहते हुए एक जो सबसे बड़ा फायदा था वह यह था कि मंहगाई चाहे जितनी बढ़ जाए, अपना एक धेले भर का खर्चा नहीं होता था। जंगल में स्वछंद गुलाटी मारते थे, कभी इस पेड़ पर तो कभी उस पेड़ पर। न नौकरी की चिंता, न रोटी की फिकर। आम तोड़ा आम खा लिया, अमरूद तोड़ा अमरूद खा लिया। केले के पेड़ों पर तो पुश्तैनी कब्जा रहता था अपना। विडंबना देखिए कि जो माल कभी अपना था, अब खरीदकर खाना पड़ता है। कुछ भी खरीरने के लिए पहले कमाना भी पड़ता है। अपनी खून-पसीने की कमाई पर टैक्स देना पड़ता है, सो अलग। टैक्स अदा करने के बाद तो कुछ खास इंसान ही आम खा पाते हैं, आम इंसान तो कुछ भी खाने से पहले बीस बार सोचता है। इस मामले में बंदर आज भी लकी हैं। आम, अमरूद और केले, जो भी मन करता है, ठेले से उठाकर भाग खड़े होते हैं। इंसानों ने बंदरों से भले ही कोई नसीहत न ली हो मगर बंदरों ने इंसान से छीना-छपटी का खेल बखूबी सीख लिया है। मेरा विश्वास है कि जो आज बंदर हैं वो कल निश्चित ही हमारी तरह इंसान बनेंगे।
हम जब बंदर थे तो सबकी एक ही भाषा थी- खी-खी,खी-खी, खों-खों,खों-खों। इंसान बनते ही हमने अपनी-अपनी अलग भाषा बना ली। भाषा भी ऐसी कि एक दूसरे की समझ से परे। बंदर थे तो सब एक बराबर थे न कोई छोटा, न कोई बड़ा, न कोई अमीर, न कोई गरीब, न कोई नेता, न कोई जनता। संसद की जरूरत भी हमें इंसान बनकर ही पड़ी, बंदर रहते हुए तो कभी हमें संसद की कमी महसूस नहीं हुई। हम बंदर होते तो शायद आरक्षण के बारे में सोचते तक नहीं, क्योंकि तब हमें आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होती। सब एक बराबर जो होते।
वैसे इंसान है बहुत चालाक। जिस बंदर से इंसान बना, इंसान बनते ही उसी बंदर को मदारी बनकर अपने इशारों पर नचाने लगा। कुछ होशियार किस्म के मदारी तो संसद तक जा पहुंचे और संसद में बैठकर अपने अलावा सभी को बंदर समझने लगे। यह इंसान मदारी होने का लाभ तो उठाते ही हैं, गुलाटी मार कर बंदर का हिस्सा भी गटक जाते हैं। बिजली विभाग की लापरवाही से लटकते बिजली के तार से उलझकर आज भी जब कोई बंदर अपनी जान गंवाता है तो इंसान पहले उसे चौराहे पर रखकर चंदा वसूलता है और अपनी जेब भरकर, मरे हुए बंदर को कूड़े में फेंककर चल देता है। आपने बंदर के हाथ में उस्त्रा वाली कहावत जरूर सुनी होगी। लेकिन यह कहावत वर्तमान संदर्भों में बंदरों पर प्रासंगिक नहीं रह गई है। इंसान से परेशान बंदरों के हाथ में उस्त्रा अगर आ भी गया तो वो उसे अपनी ही गर्दन पर चलाना बेहतर समझेंगे। अलबत्ता इंसान के हाथों में उस्त्रा इन दिनों कहीं ज्यादा खतरनाक है। अंततः मनुष्य योनि में व्याप्त आपाधापियों और अनिष्ट की आशंकाओं को देखते हुए कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हम बंदर ही अच्छे थे। आपका क्या ख्याल है?

Monday, April 9, 2007

घर बैठे बनिए ज्योतिषी- मुफ्त ज्योतिष गाइड

मुफ्त ज्योतिष गाइड

'टीम इंडिया सबको धोबी पटका देते हुए वर्ल्ड कप लेकर वापस आएगी।', ऐसी भविष्यवाणियां करके भविष्य बांचने का दावा करने वालों ने खूब कमाया। पूरी तो नहीं लेकिन उनकी आधी भविष्यवाणी जरूर सच साबित हुई, नतीजतन टीम इंडिया वापस लौट आई। कुल मिलाकर मैंने देखा है कि मामला चाहे जैसा भी हो, मसलन, टीम इंडिया के भविष्य से लेकर अभिषेक और एश्वर्या के वैवाहिक जीवन के भविष्य तक, भविष्य बांचने वालों की हर हार में पौ-बारह रहती है। इधर मुझे भविष्य बांचने के मामले में चकाचक फ्यूचर नजर आ रहा है।
अगर आप भी रोजगार के लिए पचासियों जगह जूते घिस-घिसकर परेशान हो चुके हैं तो निराश न हों बल्कि यूं समझें कि आपके भाग्य का सितारा बस चमकने ही वाला है। यह बात भी आपके सितारे ही बता रहे हैं। जी हां, सितारे बोलते भी हैं। बस सितारों की भाषा समझने वाला होना चाहिए। तो आपके सितारे कह रहे हैं कि हर तरफ से ठोकर खा चुके आप, हर तरफ से निराश हो चुके लोगों का भविष्य बांचने के धंधे में हाथ क्यों नहीं आजमाते। न हींग लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा आए। तो घर बैठे बन जाइए ज्योतिषाचार्य। आजकल भविष्यवक्ताओं के करियर में उछाल को देखते हुए आपके लिए भी प्रस्तुत है ज्योतिष गाइड वह भी बिलकुल मुफ्त-
सबसे पहले तो अपने दिल से यह डर निकाल दीजिए कि आप, जो अपना वर्तमान तक नहीं जानते वह लोगों का भविष्य क्या बांचेगा। देखिए, लोगों का भविष्य बांचने के लिए यह कतई जरूरी नहीं है कि आपके बाप या दादा कभी इस पेशे में रहे हों, आप डायरेक्ट भी इस धंधे में एंट्री ले सकते हैं। ज्योतिषाचार्य बनने के लिए आपको कहीं से डिग्री या डिप्लोमा लेने की जरूरत भी नहीं है और न ही कहीं से इसकी ट्रेनिंग ही लेनी है। यह तो विशुध्द रूप से बोलवचन देने और बकलोली करने धंधा है जिसे आप घर बैठे आसानी से अपनी गाढी और मोटी कमाई का जरिया बना सकते हैं। घर बैठे दौलत कमाने का पॉलिटिक्स के बाद यह दूसरा धंधा है। बल्कि इस धंधे में अगर आपकी दुकान चल निकली तो आप बडे से बडे पॉलिटिशियन की जेब की हजामत भी बना सकते हैं। उसे एमएलए, एमपी से होते हुए प्रधानमंत्री बनाने के सपने दिखाते-दिखाते, ग्रह-नक्षत्रों के शुध्दिकरण के नाम करवाते रहिए यज्ञ और हवन और लेते रहिए दक्षिणा। सबसे मजे की बात तो यह है कि अपनी गद्दी पर बैठकर आपको कुछ बोलना ही नहीं है, जो कुछ बोलेंगे वह सामने वाले के सितारे बोलेंगे। जो भी मन में आए बस सितारों के कंधे पर बात की बंदूक रखकर दाग दीजिए जातक के सीने में गोली। इस तरह इस व्यवसाय में आप किसी भी आरोप और दोष से भी सर्वथा मुक्त रहते हैं। किसी तरह की कोई हत्या गारंटी से गले नहीं पडती।
बस दो-चार मुख्य बातों का हमेशा ख्याल रखिए। गद्दी पर बैठकर थोड़े-थोड़ अंतराल पर आंखें बंद करके ऊपरवाले से कनेक्शन की सी मुद्रा बनाइए। जब जातक के टेढ़े सवाल का कोई जवाब नहीं सूझ रहा तो कह दीजिए कि अभी ऊपर से कोई जवाब नहीं आ रहा, इस सवाल का उत्तर देने का अभी उपयुक्त योग नहीं है। राहू, केतु, मंगल, शनि, सूर्य और बृहस्पति से खेलिए। इन गृहों का अपने मन मुताबिक एक दूसरे के घर में आवागमन और धुसपैंठ कराते रहिए। किसी को भारी किसी को हल्का बताइए। पंचाग सामने रखकर ध्यान लगाने के बहाने एक झपकी लेकर ग्रहों और नक्षत्रों की चाल पर टिप्पणी मार दीजिए। ऊंच, नीच, ढहीया, साढे साती और महादशा जैसी धुमावदार शब्दावली का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग कीजिए।
आप देखेंगे कि लोगों का भविष्य बांचते-बांचते आपका पीआर सॉलिड होने लगेगा। ऐसे में मौका देखकर किसी अखबार में राशिफल वाला नियमित कॉलम पकड लीजिए, और कहीं अगर किसी टीवी चैनल में आपकी सेटिंग जम गई तो समझिए कि आप पर उच्च का शनि फिदा हो गया है, आपके मंगल ने चंद्रमा से सांठगांठ कर ली है, आपका सूर्य आपके भाग्यघर में अपनी कोठी बना चुका है और राहु-केतु ने आपकी चाकरी करनी शुरू कर दी है। फिर तो लोगों का भविष्य बांचने के अलावा आप बे-रोकटोक खेल, राजनीति और मौसम पर भी अपने हवाई दावे ठोंक सकते हैं। निश्चिंत रहिए और विश्वास रखिए कि आपके द्वारा दी गई मौसम की जानकारी मौसम विभाग की जानकारी से कहीं ज्यादा सटीक होगी।
इतना सब करने के बाद आपको पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखना पडेगा। पीछे मुड़ कर न देखने में ही आपकी भलाई जो होगी। आप देखेंगे की बिलकुल नए धंधे में बगैर तैयारी के साथ उतरने से लूज हुआ आपका कॉन्फीडेंस, जातकों द्वारा की जा रही आपकी चरणवंदना से गेन होता रहेगा। अब आप बेखौफ होकर अपनी ज्यातिष की दुकान चला सकते हैं, और वैसे भी अपने भविष्य को लेकर आपका मुंह ताक रहे जातक की इतनी हिम्मत कहां कि आप जैसे ज्योतिषाचार्य की योग्यता पर ऊंगली उठा दे। जातक अगर इतना ही समझदार होता तो आपके चक्कर में ही क्या पड़ता।
(आज दैनिक भास्कर में प्रकाशित)

Saturday, April 7, 2007

'मुफ़्त'... 'मुफ़्त'... 'मुफ़्त'

मुफ्त जो मिले तो बुरा क्या है...

सुबह-सुबह का वक़्त था। मैं दिल्ली के साउथ एक्स. पार्ट- वन के बस स्टॉप पर खड़ा नौएडा जाने वाली बस के इंतजार में था। बस स्टॉप पर अच्छी-खासी भीड़ थी। तभी एक उन्नीस-बीस साल का लड़का हाथों में एक प्रतिष्ठित दैनिक अंग्रेजी अखबार का बंडल थामे वहां पहुंचा और एक-एक करके वहां खड़े सभी लोगों को अखबार की एक-एक प्रति बांटने लगा। लोग उस लड़के से कुछ पूछे बिना ही वह प्रतियां स्वीकार करने लगे। कुछ लोग जो बस स्टॉप से थोड़ी दूर या फिर आसपास खड़े थे, वह भी अखबार मुफ्त में बंटता देख उस लड़के की ओर लपके। इन लोगों में वह लोग भी शामिल थे जो वहां स्थित विभिन्न व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में सेल्समैन और हैल्पर के रूप में कार्यरत रहे होंगे और अपने मालिक द्वारा शोरूम और दुकानें खोले जाने का इंतजार कर रहे थे। पहले लोगों ने समझा कि शायद अखबार का मुफ्त वितरण कंपनी की ही कोई पॉलिसी होगी, फिर सोचा की शायद वह विज्ञापनदाता अखबार मुफ्त बंटवा रहा होगा जिसके विज्ञापन का स्टीकर अखबार के मुख्य पृष्ठ पर चिपका है। लेकिन यह क्या? लोग उस वक़्त सन्न रह गए जब वह लड़का सारे अखबार बांटकर सबसे अखबार के पैसे मांगने लगा। दो रुपए का अखबार मुफ्त समझ कर लपक चुके लोगों के चेहरे शर्मिंदगी की लालिमा के साथ झुंझुला उठे। कुछ ने, 'नहीं चाहिए भाई।', कह कर अखबार वापस कर दिया और कुछ ने 'मुफ्त' की मानसिकता का प्रदर्शन करने से बचने के लिए अनमने मन से पैसे दे दिए। पैसे तो खैर मैंने भी दिए लेकिन साथ ही उससे इस तरह जबरदस्ती अखबार बेचने का कारण भी पूछा।

अपना नाम उसने पूरन बताया। उसने मुझे बताया कि वह इंटर पास है और नौकरी की तलाश में गोरखपुर के पास किसी गांव से आया है। दिल्ली आकर उसने नौकरी के लिए बहुत धक्के खाए लेकिन सिफारिश और गवाही के अभाव में उसे कहीं काम नहीं मिला। हार कर उसने फुटपाथ पर अखबार बेचने का काम शुरू किया लेकिन वहां भी उसे पुलिसवाले और आसपास रेहड़ी लगाने वाले परेशान करते रहे। पुलिसवाले रोज चार-पांच अखबार बतौर रिश्वत उससे ले जाते और आसपास पानी, जूस और चाट-पकौड़ी की रेहड़ी लगाने वाले उसे अपनी जगह पर बैठा बता कर खदेड़ दिया करते। अंततः पेट पालने की मजबूरी ने उसके दिमाग में तरकीब का रूप ले लिया। वह भीड़भाड़ वाली जगहों पर ऐसे ही अखबार बेचने लगा जैसे उसने कुछ देर पहले इस बस स्टॉप पर बेचे थे। उसने लोगों की प्रवृतियों का गहन अध्ययन किया। मुफ्त चीजों के प्रति लोगों के आकर्षण पर उसका शोध देखकर मैं भी हैरत में था। लोगों की मानसिकता, मुफ्त जो मिले तो बुरा क्या है को वह भलिभांति समझ चुका था। लोगों में मुफ्त के प्रति इसी मानसिकता के पीछे छिपी लालसा और लालच को शर्मिंदा करके पैसे कमाना ही उसका व्यवसाय था। उसकी मार्केटिंग स्किलस् ने मुझे अचंभित कर दिया।

मुझे उसकी सेल्समैनशिप में कोई खामी नजर नहीं आई। लोगों की कमजोरी का फायदा उठा कर अपना माल बेचना उसकी योग्यता थी, चालाकी नहीं। दरअसल 'मुफ्त' के तिलिस्म ने लोगों को इस स्तर तक सम्मोहित कर लिया है कि उन्हे खुद को ठगे जाने का अहसास तक नहीं होता। आजकल छोटी-बड़ी तमाम कंपनियां यही तो कर रही हैं। अपने उत्पाद पर दस रुपए बढ़ाकर पांच रुपए की चम्मच, कटोरी, गिलास, शैम्पू के पॉउच, साबुन की टिक्की और बिस्कुट के पैकट मुफ्त देकर उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाया जा रहा है। घर के दरवाजे से लेकर टीवी के पर्दे तक मुफ्त सामान का लालच देकर ऊट-पटांग और बेकार उत्पाद बेचने वाली कंपनियों की भीड़ है। पूरन तो दो रुपए मूल्य का अखबार दो ही रुपए में बेच रहा था। हां, उसका तरीका थोड़ा समझ से परे जरूर हो सकता है लेकिन इसमें उसकी भी क्या गलती, बाजार के विस्तार के साथ अपना माल बेचने के लिए रोज नए फंडे तलाश करना सबकी मजबूरी है, फिर चाहे वह अखबार हो या मोबाइल, टीवी और फ्रिज। लोगों में 'मुफ्त' का संक्रमण किसी बीमारी की तरह फैल रहा है। मैंने तो कई लोगों को किसी उत्पाद पर स्कीम में मुफ्त मिल रहे पांच या दस रुपए के आइटम के दुकान पर ही छूट जाने के बाद उसे बीस रुपए का पैट्रोल खर्च करके लाते देखा है। किसी उत्पाद के साथ स्कीम में मिल रहा मुफ्त आइटम उपभोक्ता का हक है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन धीरे-धीरे लोगों की आदत में शुमार होती जा रही 'मुफ्त' की प्रवृति का लाभ पूरन जैसे लोगों से लेकर छोटी-बड़ी कंपनियां भी अपने-अपने तरीके से उठा रही हैं।

इस कहानी की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना यही है कि पूरन जैसे दिमाग जो देश और समाज के हित कार्यों में लगाए जा सकते हैं, वो फिलहाल सिर्फ अपना हित साधने में लगे हैं। उन्हे देश और समाज के लिए सोचने का अवसर देना तो दूर कोई एक अदद नौकरी तक नहीं देता। क्या आपमें से है किसी के पास पूरन के लिए एक अदद नौकरी....???????

Wednesday, April 4, 2007

.......क्योंकि खुजली सिर्फ पीठ में ही नहीं होती...

क्योंकि खुजली सिर्फ पीठ में ही नहीं होती...

बात अगर एक दूसरे की पीठ खुजाने तक ही सीमित रहती तो शायद ठीक भी था लेकिन खुजली की अपरंपार महिमा का क्या कहें, ससुरी बहुत ज्यादा देर तक पीठ पर लदी नहीं रहती। (आप लोगों को लग रहा होगा कि मैंने अपना बात बीच से शुरू क्यों कि तो साहेबान-कद्रदान इसे आप मेरी खुजली का नाम दे सकते हैं। वैसे भी खुजली का प्रसंग सुश्री नोटपैट द्वारा छेड़ा जा चुका है, यह नाचीज़ तो उसी चर्चा को थोड़ा सा विस्तार दे रहा है) तो हाज़रीनों, अनादि काल से खुजली का एक संग्रहणीय इतिहास रहा है। खुजली का चमकीला वर्तमान लार टपका रहा है और खुजली का सुनहरा और टॉपलैस भविष्य हमें अपनी आगोश में भरने के लिए बाहें पसारे खड़ा है। तो प्यारे ब्लॉगियों, इत्ता तो गारंटी से पक्का समझिए कि खुजली का क्षेत्रफल असीमित है।
खुजली, शारीरिक खुजली और मानसिक खुजली के बिन्दुओं से विस्तार पा जाती है। शारीरिक खुजली का दायरा ज़रा संकुचित है। मसलन, शारिरिक खुजली सिर से लेकर पैर तक कहीं भी हो सकती है। बकलम नोटपैट पीठ में विशेषकर। वहीं मानसिक खुजली खुले आसमान की तरह अनंत है। इसके अंतर्गत आने वाली विभिन्न खुजलियों में, साहित्यिक खुजली, सामाजिक खुजली, राजनैतिक खुजली वगैरह-वगैरह आती हैं। खुजली को समझने से पहले यह भी जरूरी है कि खुजली की प्रवृति को समझ लिया जाए। दरअसल खुजली के मूल में आनंद छिपा है। खुजली का प्रकार चाहें जो भी हो वह आनंद ही देती है। आप खुजली को अवाइड कर ही नहीं सकते। निम्नस्तरीय से लेकर उच्चस्तरीय खुजली, बिना खुजाए शांत नहीं होती।
बसअड्डे के पास सड़क पर तांगे में लाउडस्पीकर लगाकर खुजली की दवा बेचने वाला बता रहा है कि लोग आजकल खुजली की दवा खरीदते ही नहीं। उन्हे खुजाने में ज्यादा मजा आने लगा है। तांगे पर टगें लाउडस्पीकर में लगातार रेकॉर्ड बज रहा है- 'दाद, खाज, खुजली की अचूक दवा... खुजाते रहते हैं... खुजाते-खुजाते परेशान हो जाते हैं... खुजाते-खुजाते जख्म बना लेते हैं... खून निकाल लेते हैं... एक हाथ कान में, दूसरा पुरानी दुकान में... बाप बेटे की खुजाता है, बेटा बाप की खुजाता है... पुरानी से पुरानी खुजली को जड़ से खत्म करता है अलताफिया लोशन... फ्री खुराक के लिए टांगे के पास आएं।', बेचारा दवाई वाला क्या जाने की आजकल लोगों को खुजली के खात्मे की नहीं बल्कि खुजली बढ़ाने और फैलाने की दवा चाहिए। मैं तेरी पीठ खुजाउं तू मेरी पीठ खुजा का कांसेप्ट सांस्कृतिक आयोजन का रूप लेता जा रहा है। एक-दो रोज़ पहले अपने कमल भाई ने खुजली के संक्रमण से पीड़ित कुछ लौंडे-लौंडियों की तस्वीरें भी तो दिखाई थीं। शीर्षक देखकर फोटो निहारने की खुजली फिर किसमें नहीं हुई। कुछ चुपचाप देखकर वापस हो लिए कुछ ने टिप्पणी करने कमल भाई की खुजली को थोड़ा आराम देने का प्रयास किया।
यह खुजली के विस्तारवाद का युग है। अब यहां खुजली सिर्फ पीठ तक ही सीमित नहीं है। कहीं धूप कहीं छाया है, सब खुजली की ही तो माया है। यहां लाउडस्पीकर पर बज रहा रेकार्ड बदलकर कुछ यूं होना चाहिए- 'दाद, खाज, खुजली की अचूक दवा... खुजाने और खुजवाने की फिराक में रहते हैं लेकिन न खुजा पाते हैं, और न खुजवा पाते हैं... खुजाते-खुजवाते परेशान हो जाना चाहते हैं... खुजाते-खुजवाते जख्म बना लेना चाहते हैं... खून निकाल लेना चाहते हैं... चाहते हैं कि एक हाथ हो कान में, दूसरा पुरानी दुकान में... बाप बेटे की खुजाए, बेटा बाप की खुजाए... और शर्म न आए... पुरानी से पुरानी खुजली का मज़ा देता है अलताफिया लोशन... फ्री खुराक के लिए टांगे के पास आएं और कहीं भी बस ज़रा सा लगाते ही भरपूर खुजाएं।'
ईमान से बताइए, क्या खुजली के मूल में आनंद का वास नहीं है? है ना... फिर नाराज़ क्या हो रहे हैं।

Tuesday, April 3, 2007

द्विअर्थी संवाद+अश्लील चुटकुले+फूहड़ प्रस्तुतिकरण=हास्य

द्विअर्थी संवाद+अश्लील चुटकुले+फूहड़ प्रस्तुतिकरण=हास्य
भागती-दौड़ती दिनचर्या और आपाधापी भरे जीवन से मिले फुर्सत के दो पलों में इंसान के लिए हास्य अचूक औषधि की तरह काम करता है। व्यस्तता की थकान से निजात पाए व्यक्ति के लिए हास्य की महत्ता को भुनाने की आजकल भरपूर कोशिश की जा रही है। विभिन्न टीवी चैनलों पर प्रसारित हो रहे तमाम हास्य कार्यक्रम इसका प्रमाण है। सास-बहू के कभी न खत्म होने वाले षड़यंत्रकारी ड्रामे और घर-घर की अजीबो-गरीब कहानियों के तिलिस्म को तोड़ने के प्रयोग में इन हास्य कार्यक्रमों को सफल माना जा सकता है किन्तु यह हास्य कार्यक्रम भी पूरी तरह स्वस्थ्य हास्य के मानकों से छेड़छाड़ करते ही नजर आ रहे हैं। इन कार्यक्रमों के सम्मानित मंच दूषित हास्य प्रस्तुतियों से लगातार प्रदूषित हो रहे हैं। दूषित हास्य की पराकाष्ठा स्वस्थ्य हास्य की संभावनाओं का खात्मा करने पर उतारू है और ऐसे में स्वस्थ्य हास्य की परिभाषा से इन कार्यक्रमों के आयोजकों ध्यान भी हटता जा रहा है।
कहा जा सकता है कि फूहड़ता और अश्लीलता परोस कर हास्य का हजामा बिगाड़ने की रणनीति व्यवसायिकता के समीकरणों का परिणाम हो, लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसे कार्यक्रम हास्य के नाम पर फूहड़ता बेचकर खुद को हंसी के सौदागर और हास्य प्रस्तुतियों के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन कर रहे कलाकार को हंसी का बादशाह भला कैसे घोषित कर सकते हैं? मात्र चुटकुलों के हास्यास्पद प्रस्तुतिकरण को आधार बनाकर कोई हास्य कलाकार होने की उपाधि से कैसे और क्यों विभूषित कर दिया जाता है, यह किसी की भी समझ से परे हो सकता है। द्विअर्थी संवादों पर लग रहे ठहाकों और बज रही तालियों के शोर में इस तरह के कई सवाल दब रहे हैं। झूठी प्रशंसा के दबदबे में यह सवाल बड़ा आकार भी ले रहे हैं। जबकि हास्य का यह बिगड़ता स्वरूप समाज के लिए उतना ही घातक है जितना समाज में फैल रही अश्लीलता के लिए उत्तरदायी अन्य कारक। टीआरपी रेटिंग बटोर रहे इन तथातथित हास्य कार्यक्रमों पर अभी तक कहीं से कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई है। नतीजा यह कि टीवी पर कौन सा मंच हास्य कवि सम्मेलन का है और कौन सा हास्य कार्यक्रम का, यह असमंजस बढ़ता ही जा रहा है। विशुद्ध हास्य से भटके हुए इन कार्यक्रमों का उद्देश्य और औचित्य भी आशंकाओं के घेरे में है। एक ओर हास्य कार्यक्रम के नाम पर लॉफ्टर की आड़ में द्विअर्थी संवादों का प्रचलन बढ़ा है और दूसरी ओर हास्य कवि सम्मेलन के कार्यक्रम के नाम पर संचालक हास्य पैदा करने के लिए साहित्यिक भाषाशैली की व्याकरण को भुलाकर मंच पर मदिरा की बोतल पकड़े, मौन रहकर मुस्कुराती खूबसूरत बाला के साथ हर बात पर 'वाह-वाह' कर रहा है। हास्य कवि सम्मेलन कहकर दिखाए जा रहे ऐसे टीवी कार्यक्रमों में देश के सुविख्यात हास्य कवियों की उपस्थिति हास्य के भविष्य की चिंता का बेहद निराशाजनक पहलू है।
स्वस्थ्य हास्य की परंपरा को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से शुरू किए गए टीवी के हास्य कवि सम्मेलन की गरिमा सभवतः अंतिम बार मूर्धन्य कवि अशोक चक्रधर ने बचाई है। उसके बाद टीवी का हास्य कवि सम्मेलन कब अपने मूल से खिसक गया ज्ञात नहीं। जो सच में हास्य कवि थे वह हाशिए पर चले गए और चुटकुलों को लेकर तुकबंदी करने वाले हास्य कवि प्रतियोगिताएं जीतने लगे। ऐसी प्रतियोगिताओं में स्थापित हास्य कवियों की मजबूरी देखिए कि वह शायद नाम गुम जाएगा की आशंका के चलते इन प्रतियोगिता में जज तो बन बैठते हैं लेकिन फैसला आयोजक और प्रयोजकों के हाथ में ही सुरक्षित रहता है। ऐसे ही टीवी के हास्य कार्यक्रमों में ऑफिस-ऑफिस आज तक विशुद्ध हास्य परोस रहा है, वह भी समाज और देश में व्याप्त कुव्यवस्थाओं पर तीखे व्यंग्य प्रहारों के साथ। अफसोस की बात तो यह है कि कामेडी के नाम पर फूहड़ता का कारोबार कर रहे कथित हास्य कार्यक्रमों के निर्माता ऑफिस-ऑफिस की लाइन और लोकप्रियता से तनिक भी प्रभावित नहीं लगते। इनके लिए द्विअर्थी संवाद, अश्लील चुटकुले और फूहड़ प्रस्तुतिकरण ही हास्य की परिभाषा है। अब टीवी शो से पैदा तमाम विकल्पों ने हास्य कवियों में मूल पर लौटने की संभावनाओं और उनकी कविता में सुधार की गुंजाइश की जरूरत को ही खत्म कर दिया है। जो हास्य कवि अपने शहर में कवि सम्मेलन के मंच पर श्रोताओं द्वारा हूट कर दिया जाता है वह अपनी किस्मत लॉफ्टर शो में आजमाने चला आता है। हास्य कार्यक्रमों के प्रथम में नहीं तो द्वितीय में और द्वितीय में नहीं तो तृतीय आवृति में ही सही मौका सबको मिलता है। ऐसे कार्यक्रमों ने जाने कितने ही असफल हास्य कवियों को एक सफल हास्य कलाकार बना दिया है। बचे हास्य कलाकार तो वो ऊट-पटांग चुटकुलों के सहारे अपनी दुकान चला रहे हैं। ऐसे कलाकारों के लिए राहत की बात यह है कि कार्यक्रम के आयोजक उनका माल तगड़े मुनाफे में बेच रहे हैं और वह भी हास्य का लेबल लगा कर। विडंबना यह कि कॉमेडी के गिरते स्तर को बचाने के लिए कॉमेडी आइटमों में जॉनी लीवर और राजू श्रीवास्तव की रचनात्मकता भी बेबस नजर आती है। सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार को खोज रहे टीवी के प्रतियोगी कार्यक्रमों में अपनी लाजवाब फूहड़ता के प्रस्तुतिकरण से निर्णायक मंडल को लोटपोट कर देने वाले के सिर विजेता का ताज होता है और मौलिक हास्य का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले जनता के पसंदीदा कलाकार को पुरुस्कार में मिली संत्वना से ही काम चलाना पड़ता है। ऐसी प्रतियोगिताओं के फैसले जनता को भी अचंभित कर रहे हैं, जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि यह कार्यक्रम जनता के लिए नहीं बल्कि विज्ञापनों के लिए बन रहे हैं।
सोचने वाली बात यह भी है कि हास्य पैदा करने के लिए किए जा रहे इन जबरन प्रयोगों को जब सपरिवार ही नहीं देखा जा सकता तो फिर आखिर यह प्रयास समाज के किस वर्ग को हंसाने के लिए किया जा रहा है। वह हास्य कहां गया जो लोगों को हंसाने के साथ स्वस्थ्य मनोरंजन भी देता था। या फिर यह अनुमान सटीक है कि टेलैंट हंट प्रतियोगिता की होड़ में लॉफ्टर और कॉमेडी के कलाकारों की खोज ने अपने उद्देश्यों से भटक कर हास्य को भी लापता कर दिया। कारण चाहे जो भी हो लेकिन हास्य के साथ एक भद्दा मजाक तो हुआ है। हास्य की लीपापोती के इस ग्लैमर शो में हास्य का मूल स्वरूप क्षत-विक्षत हुआ है। हास्य रस को हाई-प्रोफाइल बनाने के चक्कर में उसे विषैला किया जा रहा है और सब खामोश हैं, वह भी जो विशुद्ध हास्य कवि अथवा कलाकार के रूप में सुविख्यात हैं और वह भी जो लॉफ्टर क्लब चलाते हैं। या फिर शायद यह समझ लिया गया होगा कि लोगों का हंसना जरूरी है, लोग कैसे हंस रहे हैं इससे क्या फर्क पड़ता है। अगर ऐसा है तो अपनी हास्य रचनाओं से हास्य को गरिमा और गौरव के पायदान तक लाने वाले प्रतिनिधि हास्य की मौजूदा बदहाली से मुंह भला कैसे मोड़ सकते हैं। जिनके प्रयासों से लोगों ने हास्य के महत्व को जाना है, समझा है वह खुद अपने संघर्ष को बेनतीजा होते भला कैसे देख सकते हैं। क्या लॉफ्टर, कॉमेडी और वाह-वाह के नाम से अपमानित होते हास्य को उसकी मूल परिभाषा पर वापस लाने की पहल कभी हो सकेगी? या फिर मसखरी ही हास्य की नई परिभाषा मान ली जाएगी।


('दैनिक जागरण' में प्रकाशित)

Sunday, April 1, 2007

सेक्स और सेंसेक्स की भूख

सेक्स और सेंसेक्स की भूख
-अनुराग मुस्कान

यह प्यास है बड़ी। दरअसल यह स्लोगन अधूरा है। सीमित है। संकुचित है। इसमें प्यास तो है, भूख नहीं है। प्यास के साथ अगर इसमें भूख भी होती तो यह असीमित हो जाता, व्यापक हो जाता। हमारे देश में प्यास से कहीं ज्यादा भूख बड़ी है। हमें कभी भी, कहीं भी भूख लग जाती है। मैंने सड़क पर चाट-पकोड़ी की रेहड़ी से लेकर पंचसितारा होटल तक भूखों की कभी न खत्म होने वाली कतारें देखी है। यह देख मेरा विश्वास और दृढ़ हुआ है कि यह भूख है बड़ी। भूख केवल पेट की ही नहीं होती, शरीर की भी होती है, मन की भी होती है, दिमाग की भी होती है, आंखों की भी होती है और जेब की भी होती है। हर भूख बड़ी है। बड़ी के साथ, यह भूख बढ़ी भी है। लगातार बढ़ी है। आजकल तो सेक्स से लेकर सेंसेक्स तक, भूख ही सुर्खियों में है। कोई सेक्स की भूख से त्रस्त है तो कोई सेंसेक्स की और कोई दोनों ही की। सबकी अपनी-अपनी भूख है। भूख शांत करने की मंशा से सभी कतारबद्ध हैं। सवा करोड़ की भीड़ है। भीड़ भी भूख के साथ लगातार बढ़ती ही जाती है। आज सवा करोड़ है, कल डेढ़ करोड़ होगी और परसों दो करोड़। अभी आधे ठीक से तृप्त भी नहीं हो पाते कि पहले वाले को फिर से भूख सताने लगती है। यह क्रम अनवरत जारी है। सेक्स से लेकर सेंसेक्स तक भूख वर्गीकृत है। सेक्स और सेंसेक्स से जुड़ी हर खबर ब्रेकिंग हैं, एक्सक्लूसिव है। सेक्स और सेंसेक्स की भूख के मामले में छोटे निवेशक एक विश्वसनीय साथी और एक विश्वस्नीय शेयर के साथ संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन बड़े निवेशक, दोनों ही मामलों में रैकट चला कर भी असंतुष्ट हैं। छोटे निवेशक दोनों ही मामलों में घाटा उठाते हैं और बड़े निवेशक मुनाफा कमाते हैं।
भूख के दौर होते हैं, और दौरे भी। अब वह दिन दूर नहीं जब फास्ट फूड और लाटरी की तरह सेक्स और सेंसेक्स की भी रेहड़ी लगा करेगी। रेहड़ी से लेकर फाइव स्टार होटल तक सेक्स और सेंसेक्स की हर स्वादिष्ट वैरीयटी उपलब्ध होगीं। रेहड़ी पर बोर्ड लगा होगा- दिल्ली और मुंबई की मशहूर, ताजातरीन सेक्स और तेजी से बढ़ते सेंसेक्स का सबसे पुराना ठिकाना, बड़े-बड़े अभिनेताओं से लेकर बड़े-बड़े नेताओं तक की पहली पसंद, ग्राहक की सेवा ही हमारा मकसद, संतुष्टि गारंटीड, एक बार सेवा का मौका अवश्य दें। इसी प्रकार फाइव स्टार होटलों में सेक्स और सेंसेक्स के हैप्पी ऑवर्स हुआ करेंगे। मुझे तो सेक्स और सेंसेक्स के व्यवसायियों का फ्यूचर चकाचक नजर आ रहा है। भूख बढ़ेगी तो मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी तो बाजार भी फैलेगा। इस संबंध में दुकानों के आवंटन को लेकर भी मारामारी मचेगी। जैसे शराब के ठेकों को लेकर मचती है। यहां भी प्राइम लोकेशन की दुकानें सफेदपोशों के भईयों, भतीजों और भांजों को भी मिलेगीं। छोटी रसूख वाले रेहड़ी और दुकान लगाएंगे और रैकट चलाने वाले बड़े रसूखधारी बड़े-बड़े मॉल में अपने कारोबार को विस्तार देंगे। भूख पर बाजार टिका है, और टिका रहेगा। जितनी बड़ी भूख उतना ही बड़ा बाजार। मुझे सेक्स और सेंसेक्स के धंधे में संभावनाओं का सुनामी दिखाई दे रहा है। ऐसे में पुलिस-प्रशासन से भी क्या डरना। पुलिसवाले तो चाऊमीन और मोमोज की रेहड़ियों को भी डंडा दिखाते हैं और बाद में एक प्लेट चाऊमीन और बीस रुपए में मान जाते है।

( 13-09-2006 को 'हिन्दुस्तान' में प्रकाशित)