Friday, May 14, 2010

आदमी खाए पत्थर, पंजीरी उड़ाए कुत्ता

आदमी खाए पत्थर, पंजीरी उड़ाए कुत्ता
(अमर उजाला में 1 मई 2006 को प्रकाशित)

यह सुनकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है, किन्तु है सौ फ़ीसदी सच। आदमी मर रहा है, और वह भी कुत्ते की मौत। आदमी तो यों भी मर ही जाता और शायद किसी को पता भी नहीं चलता, लेकिन वह कुत्ते की मौत क्या मरा, ख़बर बन गई। यहां ख़बर आदमी की मौत न होकर आदमी का कुत्ते की मौत मरना है। ताज़ा सर्वेक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि आजकल आदमी कुत्ते की मौत ही मर रहे हैं और कुत्ते लाल और नीली बत्तियों की गाड़ियों में सैर-सपाटा कर रहे हैं। प्यास लगे, तो मिनिरल वॉटर और कोका-कोला पीते हैं। ख़ूबसूरत बालाओं से लेकर जार्ज बुश तक पुचकारे और सहलाए जाते हैं। दरअसल, कुत्तों की ज़िंदगी में यह बदलाव अचानक नहीं आया, बल्कि जब से कुत्तों का दखल राजनीति में बढ़ा है, तब से उनके दिन फिर गए हैं। अब वे इंसानों की तरह जीते हैं और इंसान, उनकी मौत मरते हैं।
वैसे अब वह दिन दूर नहीं, जब कुत्ता भी शहरों का घोषित राजा होगा। चूंकि कुत्ते आजकल नेताओं के सर्वाधिक सानिध्य में हैं, अतएव नेताओं से कुत्तों की घनिष्ठता का कुछ भी परिणाम सामने आ सकता है। मुझे कभी-कभी लगता है कि जंगल हमेशा से जंगल नहीं रहे होंगे, बल्कि किसी अच्छे-खासे शहर को कुछ नेताओं ने मिलकर पहले जंगल बनाया होगा और फिर शेर को जंगल का राजा बना दिया होगा। चूंकि अब शेर राजनीति के दूषित सच को भांप चुका है। शायद इसलिए शहर का रुख़ नहीं करता। यही कारण है कि आजकल कुत्ते राजनीति के झांसे में हैं। रही बात शहरों की तो वे तेज़ी से जंगल बनते ही जा रहे हैं। ऐसे में आदमी की तो बिसात ही क्या? वैसे आदमी का आदमी होना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। कभी-कभी सोचता हूं कि आदमी को कुत्ता होना चाहिए था और जिनको कुत्ता बनने से गुरेज़ है, वे काला किरण अथवा चिंकारा बन जाते। वर्तमान संदर्भों में आदमी में कुकुर प्रृवत्ति का होना ही उसके लिए सफलता की कुंजी है। वरना सरवाइव करना मुश्किल है। कुत्ते प्रगति पर हैं। वे सड़क से लेकर संसद तक को सूंघते फिर रहे हैं। आदमी कुत्तों की तुलना में बहुत पिछड़ गया है। जहां आदमी के राजनीतिक और सामाजिक सरोकार सीमित हो गए हैं, वहीं कुत्तों के राजनीतिक और सामाजिक सरोकार के दायरे बढ़े हैं। मेरी गली के कुत्ते अब किसी चुनावी रैली, जुलूस और भीड़ को देखकर नहीं भौंकते। अब वे सलीका सीख रहे हैं। वो जान चुके है कि उनकी एक प्रजाति राजघाट तक का निरीक्षण कर चुकी है। कुत्ते यों भी सुखी हैं कि उनको न बिजली से मलतब है, न पानी से। न रहने के लिए अपना घर चाहिए और न रोज़गार। बढ़ती महंगाई से कुत्तों की सेहत पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता।
कुत्ते सपने नहीं देखते। कोई मांग नहीं करते और न ही किसी से शिकायत करते हैं, शायद इसलिए भोग और विलास, दोंनो का सुखपान कर रहे हैं। समझ लीजिए कि अब वह दिन दूर नहीं, जब आदमी के गले में पट्टा होगा और कुत्तों के हाथों में ज़जीर। जंगलराज में कुत्तों का ही शासन होगा। तब भूगोल व जीव विज्ञान से संबंधित तमाम चैनल आदमी पर वृतचित्र बनाएंगे। वो दिखाया करेंगे कि कैसे जंगल की विपरीत परिस्थितियों में भी आदमी की दुर्लभ प्रजाति ख़ुद को बचाए रखने के लिए संघर्षरत है। आदमी यहां पत्थर खाता है और कुत्ते पंजीरी उड़ाते है। कुत्ते कुत्ते होकर भी ठाठ-बाट से हैं और आदमी, आदमी होकर भी कुत्तों की मौत मर रहा है।