Wednesday, August 19, 2009

- खां साहब की वो गाली कभी नहीं भूलेगी....

स्मृतिशेष- बिस्मिल्लाह खां

मंगल ध्वनि से शोक धुन तक

-अनुराग मुस्कान

सन् दो हजार की बात है। ताजमहल के पार्श्व में एक म्यूजिकल टीवी शो की रिकार्डिंग चल रही थी। एक सदी की विदाई और दूसरी सदी के स्वागत की थीम पर आधारित इस कार्यक्रम में संगीत और सिनेमा जगत की कई जानी-मानी हस्तियां शिरकत कर रही थीं। मैं, अन्य लोगों के साथ इस कार्यक्रम की यूनीट को स्थानीय स्तर पर सहयोग कर रहा था। इस कार्यक्रम की शूटिंग में एक दिन शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत गायन और वादन की प्रस्तुतियों के लिए तय कर दिया गया था। इसमें शास्त्रीय संगीत में गायन और वादन से जुड़ी तमाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हस्तियों के साथ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब की प्रस्तुति भी होनी थी। दर्शक दीर्घा में भीड़ कुछ उद्दंड थी। संभवतः मनमोहक नृत्य अथवा सुगम संगीत प्रस्तुतियों की उम्मीद में बैठे लोग शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों को हजम नहीं कर पा रहे थे और कलाकारों द्वारा बार-बार तवज्जो की गुजारिश के बावजूद लगभग सभी को हूट कर रहे थे। ऐसे में उस्ताद की बारी आई। उस्ताद ने किसी से तवज्जो की भीख नहीं मांगी बल्कि मंच पर आते ही बड़ी शालीनता के साथ माइक संभाला और बोले, 'मैं ज्यादा तो बोलता नहीं, शहनाई की जुबान जानता हूं, बस इतना ही कहना चाहता हूं की मेरा नाम बिस्मिल्लाह खां है, माफी चाहूंगा मैं अब शहनाई बजाने जा रहा हूं, आप चाहें तो कानों में रुई ठूंस सकते हैं।' उस्ताद के इतना कहते ही सन्नाटा पसर गया और फिर कम से कम उस्ताद की प्रस्तुति के दौरान कोई हो-हल्ला नहीं हुआ। यही नहीं कार्यक्रम के अंत में जब बेशुमार तालियां बजीं तो उस्ताद ने यही कहा कि, 'मुझ से पहले भी जो कलाकार आए उनकी प्रस्तुति मुझसे भी बेहतर थी लेकिन उनकी बदनसीबी रही कि आप उन्हे तवज्जो न दे सके।' मैंने दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों को पानी-पानी होते देखा। दर्शकों की भीड़ को नियंत्रित करने का जो काम आयोजक, सुरक्षाकर्मी और व्यवस्थापक नहीं कर पाए वह काम उस्ताद ने दो शब्द कह कर दिखाया। यकीन जानिए, यह उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ही कर सकते थे। इस संस्मरण को लिखने के बाद उनके व्यक्तित्व का विशलेषण करने आवश्यकता नहीं रह जाती।
उस्ताद के अंदर छिपे इंद्रधनुष को रेखांकित करना पृष्ठों पर संभव नहीं है। इसी कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मुझे कुछ दूर तक उस्ताद की व्हील चेयर चलाने का सौभाग्य भी मिला। दरअसल जमुना की रेत पर बने कृत्रिम रास्ते से उन्हे ताजमहल के पश्चिमी गेट पर तैनात वाहन तक छोड़ने जाने का मौका था यह। अपना परिचय देने और उनसे बात करने के उत्साह और क्रम में इतना तल्लीन हो गया कि फिर उस्ताद की डांट से ही तंत्रा भंग हुई। अबे साले, गड्डे में गिरा के जान लेगा क्या हमारी?' अगर उस्ताद न चीखते तो व्हील चेयर मेरी लापरवाही से रेत में बने एक गड्डे में गिर सकती थी। हालांकि उस्ताद की डांट में नानाजी और दादाजी सरीखा स्नेह था लेकिन फिर भी घबराहट में मेरे पसीने छूट गए। मैंने उस्ताद से माफी मांगी। उस्ताद मेरी हालत देखकर हंस पड़े। बोले, 'बेटा, हमारा क्या है, तुम लोग भले ही हमें गड्डे में डाल दो, हम वहां भी शहनाई बजाना नहीं छोडेंगे।', 'आपको चाहने वाले वहां भी आपको सुनने चले आएंगे सर।', मैंने गुस्ताखी ही सही लेकिन बड़ी हिम्मत करके उन्हे जवाब दिया। उस्ताद खुलकर हंस पड़े। मेरी जान में जान आई। लेकिन नौ साल बाद आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं तो उनकी इस बात का कि तुम लोग भले ही हमें गड्डे में डाल दो का मर्म समझ में आ रहा है। उन वजहों की तलाश करने को जी चाहता है जिनके चलते उस्ताद को उनकी सादगी का सिला नहीं मिला।
उस्ताद के सुपुर्द-ए-खाक होने पर इलाहाबाद के सुविख्यात शास्त्रीय गायक प्रो.रामआश्रय झा को सुन रहा था। चौदह साल की उम्र में उस्ताद ने इलाहबाद में ही अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी थी। उसके कुछ सालों बाद एक कार्यक्रम के लिए जब रामआश्रय जी उन्हे आमंत्रित करने वाराणसी पहुंचे तो उस्ताद की ओर से अपनी प्रस्तुति का पारिश्रमिक चालीस हजार रुपये मांगा गया लेकिन रामआश्रय जी के यह याद दिलाने पर कि यह वही मंच है जहां उस्ताद ने अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी थी और चूंकि इलाहाबाद के सुधि श्रोता उनके पुनः आगमन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, उस्ताद मुफ्त में शहनाई बजाने चल पड़े। उस्ताद की इसी जिंदादिली का आगे चल कर कुछ लोगों ने अवांछित लाभ भी उठाया। प्यार के दो बोल में बिक जाने वाले उस्ताद इस दुनिया से जाते वक़्त इसी तरह की कई शिकायतें भी दिल में जज्ब करके ले गए। कितने ही सरकारी कार्यक्रमों का पारिश्रमिक तो उस्ताद को मरते दम तक नहीं मिल सका, अपने कई साक्षात्कारों में उस्ताद इसके प्रति नाराजगी भी जाहिर करते रहे। उनके जाने के बाद भले ही झंडे आधे झुका दिए जाएं, राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर दिया जाए, उनकी याद में कागज पर लिखा शोक संदेश पढ़ने की औपचारिकता निभाई जाए मगर इस सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता कि जीते-जी सरकारों ने उस्ताद को नजरअंदाज किया। हालांकि सरकारी उपेक्षा से उस्ताद का कद जरा भी नहीं घटता। वह तो संगीत समझने वालों के मुरीद थे और सियासत करने वाले संगीत की भाषा क्या समझेंगे।
शहनाई की बात पर हमेशा उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब का नाम लिया गया लेकिन फिर भी मंदिर में बैठकर शहनाई बजाने वाले और गंगा के प्रवाह से जुगलबंदी करने वाले इस मुसलमान की बारी अपने समकालीन कलाकारों के मुकाबले सबसे बाद में आई। सर्वसुख-सुविधा संपन्न अपने समकालीन साथी कलाकारों की तुलना में उस्ताद हमेशा दयनीय हाल में रहे। उस्ताद चाहते तो अपने लिए बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर और क्या कुछ नहीं जुटा सकते थे। सिर्फ संगीत साधना को ही अपनी जिंदगी का मकसद बना देने के जुनून की यह एक मिसाल भी है। इसे बेमिसाल कहें तो शायद ज्यादा उपयुक्त रहेगा। इंडिया गेट पर एक बार शाहनाई बजाने की हसरत उस्ताद अपने साथ ही ले गए, इसे उस्ताद का नहीं, इस देश का दुर्भाग्य कहा जाएगा। कोई कलाकार अपने से उम्र में बड़ा हो, बराबर का हो अथवा छोटा हो, खां साहब ने कभी उसकी तारीफ में कसीदे कढ़ने में देर नहीं की, फिर चाहे इसके लिए उन्हे उस कलाकार के पास खुद ही उठ कर क्यों न जाना पड़े। उस्ताद इस देश के हर आमो-खास के सुख-दुख के साथी रहे। छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त की सुबह का इस्तकबाल अपनी शहनाई से निकली मंगन ध्वनि से करने वाले और हर दुखःद पल पर शोक धुन बजा कर संबल देने वाले इस महान शहनाई वादक के जाने पर किसी ने कुछ नहीं बजाया, न तबला, न सारंगी, न सितार, न संतूर, न जलतरंग, न वीणा, न सरोद, न बांसुरी और न उस्ताद की पसंदीदा कजरी ही गाई। उनके जाने पर भी पृष्ठभूमि में उन्ही की शहनाई रोई। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां केवल शहनाई को ही बेवा नहीं कर गए बल्कि हर उस उम्मीद को बेवा कर गए जो उनसे बाबस्ता थीं।

-अनुराग मुस्कान
anuraagmuskaan@gmail.com

2 comments:

Tanushri Guchhait said...

hi anuraag...this is tanushri...a budding journo and ur friend in facebook..i happen to c ur post abt Ustad Bismillah Khan...u have really paid ur tribute to the maestro in a very touchy note...i agree wid u here...recently there were many shows organised in the memory of Pop icon Micheal Jackson where the stage saw many celebs performing but when it came to remembering this legendary shehnai maestro i dnt remember any famous icon coming forward...it really makes me feel sad!!!

rahul dev awasthi "krodhi" said...

Namaskar , Anurag ji, Muje kushi hai ki aap se samwad ka mooka mila... swrgiya bismilla khan par aap ka lekh pada ... jaha tak main samaj paya aapki nazaron se... to unko smajh pana kathin bilkul nahi tha... kathin aagar kuch tha to unki bhawnao ka prastutikaran .... jo apne bakhubi kiya ... main badhai dena chahta hoon aapko.. ki na sirf is mahan shksiyat ko samajhne ka aapko moka mila balki samjhane kaa bhi....

Rahul Awasthi.....