Thursday, March 15, 2007

अनुराग मुस्कान: एक एलआईजी बने प्यारा (व्यंग्य)

एक एलआईजी बने प्यारा
-अनुराग मुस्कान
'एक बंगला बने प्यारा...', यह गीत वर्तमान संदर्भों में भले ही हास्यास्पद लगे किन्तु एक समय में भविष्य को लेकर सकारात्मक इच्छाशक्ति का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता था। गायक और नायक ने जिस सहजता के साथ इस गीत में अपना बंगला बनने के विश्वास को दोहराया है वह निश्चित ही मौजूदा हालातों में किसी के लिए भी हिम्मत का काम हो सकता है। बढ़ती महंगाई से भी तेज बढ़ते प्रॉपर्टी के दामों और प्रॉपर्टी के दोमों की होड़ में लगातार बढ़ती महंगाई की रफ्तार देखकर मैं तो इस गीत को गुनगुनाते हुए भी डरता हूं। हां, कभी-कभी जब गुसलखाने में नहाते वक्त पीठ पर साबुन मलते हुए आंखें बंद होती हैं तो अक्सर कंक्रीट का एक जंगल दिखाई पड़ता है, इस जंगल में एक 'वन प्लस वन' के अपने ठिकाने की कल्पना में मन ही मन बंगले की जगह एलआईजी लगा कर जरूर एक लाइन गुनगुना लेता हूं, 'एक एलआईजी बने प्यारा...।' लेकिन यह सपना भी अभी हाल-फिलहाल साकार होता नहीं लगता।
ठेकेदार से लेकर किरायदार तक जानते हैं कि आजकल प्रॉपर्टी के दामों में जबरदस्त आग लगी पड़ी है किन्तु यह आग कैसे लगी और किसने लगाई यह कोई नहीं जानता। यह आग कब बुझेगी यह भी कोई नहीं बताता। बस, सभी एक ही सलाह देते हैं कि समय रहते एक अपना घर बना लो वरना आने वाले समय में फुटपाथ पर भी जगह नहीं मिलेगी। मैं तो उस दिन के बारे में सोचता हूं कि जब मुझ जैसे आम आदमी को फुटपाथ पर भी जगह नसीब नहीं होगी, तब वो बेचारे गरीब कहां जाएंगे जो पहले से ही फुटपाथ पर हैं। उन बेचारों का क्या होगा? देखा न आपने, बस मुझमें यही एक कमी है, अपनी छोड़ कर दूसरों की फिक्र में दुबला होने लगता हूं। तभी तो आज तक अपने लिए एक घर भी नहीं बना पाया।
अभी परसों ही टीवी पर मल्लिका सेहरावत के बंगले का गुसलखाना देखा। वह देखाना भी मजबूरी थी, टीवी दिखा जो रहा था। अब तो टीवी पर भी वही देखना पड़ता है साहब जो टीवी दिखाता है, जो हम और आप चाहते हैं वह टीवी दिखाने लगा तो बेचारे टीवी वाले खाएंगे क्या? खैर, बात मल्लिका सेहरावत के गुसलखाने की चल रही थी। क्या गुसलखाना था साहब! किसी मल्टीप्लैक्स की कार पार्किंग से भी बड़ा। इतना बड़ा कि बीस-बीस ओवर का एक फ्रैंडली मैच करा लीजिए। अब मेरे जैसा सौंदर्यबोध रहित मूर्ख आदमी तो इतना ही सोच सकता है न, बड़ी सोच वाले तो इसे संपन्नता में भी जीवित कलात्मकता कह कर सराहते हैं। मल्लिका का गुसलखाना देखकर मेरी पत्नी उछल कर बोली, 'सुनिए जी, मैं तो कहती हूं कि ये घर-वर का चक्कर छोड़िए और एक ऐसा गुसलखना ही बनावा लीजिए, हमारी तो पूरी की पूरी फैमिली बड़े आराम से इसमें सेटल हो जाएगी, एक कोने में चूल्हा रख लेंगे और दूसरे में पंलग, बचे दो कोने तो वहां मुन्ना-मुन्नी अपना स्टैडी कार्नर बना लेंगे। वैसे भी आजकल कार्नरस् का बड़ा क्रेज है। पीजा कार्नर, सूप कार्नर, फास्ट फूड कार्नर, छोले भटूरे कार्नर, डोसा कार्नर और तो और बड़े बाजार में बन रहे फाइव स्टार होटल का नाम भी डैडीसन्स कार्नर है। जब बड़े-बड़े लोग कार्नरस् में सेटल हो रहे हैं तो हमें भला क्या परेशानी?',
अब पत्नी को कैसे समझाऊं कि घर तो छोड़ो प्रिय, अगर जीवन भर की कमाई से हुई बचत को खींचतान कर भी जोडूं तो ऐसा गुसलखाना भी नहीं बनवा सकता। यहां तो यह सोच कर ही सिरदर्द से साथ पसीना छूट जाता है कि जीवन बीमा पॉलिसी की किस्त कहां से जुटाऊं, इस हिसाब से तो अपना घर बनाने की फिक्र मेरी जान ही ले लेगी। यहां तो हालत यह है कि मेरा मोबाइल फोन भी अधिकतर मेरी पत्नि ही अटेंड करती है। कारण यह है कि मैंने लगभग सभी दोस्तों और उनके भी दोस्तों से काफी उधार ले रखा है, सो तकाजे वालों के दिनभर फोन आते रहते हैं। पत्नी बड़ी ही आत्मीयता के साथ उनसे कह देती है कि,'वो अभी बाथरूम में हैं, आप बाद में फोन कर लीजिएगा प्लीज!' क्या करूं साहब, एक आम आदमी की हैसियत और अपने दफ्तर में धूस को धूंसा के अनुसरण के चलते अब बिना उधार लिए मेरी गृहस्थी की गाड़ी नहीं चलती और ज्यादातर मुझे 'बाथरूम' में ही रहना पड़ता है।
लीजिए फिर गुसलखाने का जिक्र आ गया। वैसे यह भी अपनी-अपनी किस्मत है जनाब, मैं एक कमरे का भी घर नहीं बनवा पा रहा और कुछ लोग अपना गुसलखाना तक डिजाइन करवाते हैं। उनके घर में हर कमरे से एक गुसलखाना अटेच होता है। उनके गुसलखानों से अपने किराए के पूरे घर की तुलना करते हुए भी शर्म आती है। एक मल्लिका का गुसलखाना था, एक मेरा गुसलखाना हैं, जहां बैठो तो पीछे दीवार टकराती है और उठो तो नल का टोंटी माथा फोड़ देती है। नहाते हुए साबुन हाथ से छूट जाए तो उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं, सीधे फ्लश में गिरता है। फिर बाकी के दिन सिर्फ पानी से ही नहाना पड़ता है क्योंकि पत्नी सात दिन से पहले नया साबुन नहीं निकालती। अपना घर बनाने के लिए बचत करने का कोई उपाय वह छोड़ना नहीं चाहती। आप इसे कंजूसी कह सकते हैं लेकिन मुझे अपनी पत्नी की बचत संबंधी इस सोच में कोई खोट नजर नहीं आता। दरअसल, मेरे दादाजी किराएदार ही जीये और किराएदार ही परलोक सिधारे। मेरे पिता ने भी इसी परंपरा की निर्वाह किया। अब अगर मेरी पत्नी चाहती है कि किराएदार होने के इस अभिशाप को तोड़ा जाए तो इसमें बुराई ही क्या है। हालांकि मैं उसे बहुत समझाता हूं कि प्राणप्रिय, कंक्रीट के तेजी से पनपते जंगल में सब कुछ इतना उलझा हुआ है कि तीस लाख तक के छोटे से मकान की दहलीज से ही सड़क शुरू हो जाती है, न बागवानी का सुख और न आंगन में सुस्ताने का विकल्प। कपड़े सुखाने के लिए अरगनी बांधने तक की जगह नहीं। कहीं-कहीं तो यह सुख पचास लाख के मकान में भी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन पत्नी है कि कुछ भी समझने को तैयार नहीं, उस पर तो जैसे अपना मकान बनाने की देवी आई हुईं हैं।
खैर साहब, अपना घर बनाना इतना मुश्किल भी नहीं है जितना लगता है। इधर अपने घर के बारे में सोचिए और उधर पलक छपकते ही आपका घर तैयार है। आप चाहे तो इस दीपावली पर लक्ष्मी पूजन भी अपने नए घर में ही कर सकते हैं। और केवल अपना घर ही क्यों, अपने और अपनी पत्नी के बाकी बचे जीवन के अलावा अपने बच्चों के भविष्य की चिंता भी अब आपको करने की जरूरत नहीं है। जी नहीं, यह मेरा नहीं बल्कि उन बैंकों का कहना है जो मुझे हाउसिंग लोन की तरह ही अपने और अपने परिवार के भविष्य को संवारने के लिए तमाम सारे लोन देने के लिए अधीर एवं आतुर बैठीं हैं। वह तो मैं ही दुर्भाग्यशाली हूं जो उनके सामने अपने इस दुनिया में होने के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पा रहा।

(8/10/2006 को 'जनसत्ता' रविवारी में प्रकाशित)

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