Friday, March 16, 2007

अनुराग मुस्कान: नारी तुम केवल श्रद्धा हो...? (लेख)

श्रंगार और हास्य के बहाने छली गई नारी
-अनुराग मुस्कान


कुछ दिन पूर्व मैं उत्तरप्रदेश बोर्ड की बी.ए. तृतीय वर्ष की हिन्दी साहित्य की एक पुरानी दिग्दर्शिका के पृष्ठ पलट रहा था। दिग्दर्शिका में, हिन्दी साहित्य की रूमानी कविताओं में नारी भूमिका के विभिन्न आयामों का बखान करती एक व्याख्या पर दृष्टि ठहर गई। व्याख्या के बीच-बीच में हिन्दी के कुछ प्रतिनिधि कवियों के कविता अंश भी उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत थे। प्रस्तुत कविता अंशों में रूमानियत के नाम पर नारी स्वरूप को किसी स्वादिष्ट व्यंजन की तरह कथित प्रेम की चाश्नी में लपेटकर परोसा गया था। चर्चा से पूर्व कुछ कविता अंश यहां भी प्रस्तुत हैं- 'आह, मेरा श्वास है उत्पत्त/ धमनियों में उमड़ आई है लहू की धार/ प्यार है अभिशप्त/ तुम कहां हो नारी?' यौनाकर्षण की एक और अकुण्ठ अभिव्यक्ति इस प्रकार थी- 'आज मुख्य मेहमान तुम/ रात के इस फ्लोर शो में/ एक बार बस एक बार/ अपने तन की छाप छोड़ जाओं मुझ पर!' एक अन्य उदाहरण- 'तुम्हारे स्पर्श की बादल धुली कचनार नरमाई/ तुम्हारे वक्ष की जादू भरी मदहोश गरमाई!' एक कवि महोदय कहते हैं- 'मेरा वश चलता मैं/ बन जाता कौमार्य तुम्हारा/ होठों का निर्माल्य अछूत/ बनकर मैं छा जाता/ अंगों के चम्पाई रेशमी/ परदों में सो जाता....!' ध्यान दें तो इन कविता अंशों में प्रेम निमंत्रण के संबोधन अपनी प्रेयसी अथवा नायिका विशेष पर केन्द्रित न होकर पूरी नारी जाति पर केन्द्रित जान पड़ते हैं।
सबसे पहला सवाल यह कि क्या नारी देह को उघाड़ती इन पंक्तियों को श्रंगार रस की कविताओं का उदाहरण माना जा सकता है। या फिर यह श्रंगार रस में सौंदर्यबोध के बहाने पंक्तियों के माध्यम से कवि की वासनात्मक सोच का विस्फोट है। नारी। केवल एक शाब्दिक संरचना मात्र नहीं है। कवि मैथिलीशरण गुप्त ने जब, 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो', पंक्तियां सृजित की होंगी, तब शायद उन्हे भी यह पूर्वाभास रहा होगा कि उनकी यह पंक्तियां आगे चलकर कविता के साहित्यिक संदर्भों में एक नये सिरे से अपनी प्रसंगिकता तलाश करेंगी। या तो यह पंक्तियां गुप्तजी ने कविता में श्रंगार रस के नाम पर नारी की बेचारगी के पूर्वाभास से ग्रसित होकर लिखी होंगी अथवा साहित्य के पृष्ठों पर नग्न होती नारी की आबरू बचाने के प्रयास स्वरूप। इसे हम समकालीन विरोधाभास भी कह सकते हैं कि श्रद्धा की प्रतिमूर्ति गुप्त की नारी, श्रंगार रस के पृष्ठों पर बलत्कृत होकर बिलखती ही रही। यहां सवाल यह नहीं है कि ऐसी कविताएं गिनती में कम हैं या ज्यादा बल्कि सवाल यह है कि इन रचनाओं और इनके रचयिताओं का साहित्यिक समाज ने कभी बहिष्कार क्यों नहीं किया, जबकि श्रंगार रस के बहाने इन रचनाकारों ने नारी के संबंध में अपनी विकृत सोच को साहित्यक शब्दावली के कंधे पर रखकर दागा है। नारी के हृदय में समाहित ममता और करुणा के सागर की लहरें गिनने, उसके सौंदर्य और सहनशक्ति की प्रंशसा करने और प्रकृति के रूपकों से उसके अनेकों रूपों का बखान करने की बजाय, नारी को मात्र शारीरिक सुघढ़ता के आधार पर आह भरते हुए उपभोग करने की एक वस्तु प्रचारित किया गया। रचनाधर्म का यह अनुष्ठान समझ से परे है।
स्त्री हमेशा से ही कवियों के लिए कविता में अचूक प्रयोगात्मक माध्यम रही है। कविता में अनूठी शैली के नाम पर नारी के साथ उसकी ही अनिच्छा से तमाम प्रयोग होते रहे हैं। श्रंगारी कविताओं में भोग ली गई नारी आगे चलकर हास्य कविताओं में चुटकुला बनाकर छली गई। कई हास्य कविओं ने हास्य कविता में अपनी ही पत्नी को हास्य की उत्पत्ति का माध्यम बनाने के लिए बड़ी ही बेबाकी के साथ उनकी सार्वजनिक खिल्ली उड़ाई। नारी को हास्य कविता के केन्द्र में रखकर उसका मखौल उड़ाए जाने और उसे व्यंग्य बाणों से छलनी करने का क्रम अनवरत जारी है। कविता साहित्य में नारी को लेकर फूहड़ और अश्लील प्रयोगवाद की परंपरा का अनुसरण सफलता की गारंटी बन गया है। ऐसे में भले ही पतिव्रताएं अपने कविवर पति की ख्याति पर हो रही करतल ध्वनि के शोर से अभिभूत हो गईं हों किन्तु हास्य-व्यंग्य और श्रंगार के नाम पर नारी जाति की हो रही जगहंसाई से उसके अपमान की गंभीरता का रुदन भी साफ सुनाई देता है।
नारी कहते ही अथवा नारी को सृष्टि का पर्याय कहते ही उसके अनेक ममतामयी स्वरूप जीवंत हो उठते हैं। सृष्टि और नारी में एक दूसरे के अस्तित्व का बोध समाहित है। ऐसे में बेहद अफसोसजनक है कि पुरूष वर्ग ने अपने मानसिक उपद्रव के हाथों की कठपुतली बनकर अभिव्यक्ति के लगभग प्रत्येक माध्यम में नारी पर मनचाहे और अनचाहे प्रयोग किये। फिर चाहे वह हिन्दी साहित्य हो, फिल्म हो अथवा टेलीविजन हो। घूंघट में सिमटी और शरमाई एक भोली-भाली स्त्री को साहित्य के पृष्ठों और रूपहले पर्दे पर नग्न करने की होड़ अब तक जारी है। समझ में नहीं आता कि नारी के प्रति श्रद्धा की संचार भावनाओं में आखिर कब, कैसे और कहां अवरोध आ गया। एक श्लील सांचे में ढली हुई नारी को अश्लील सांचे में फिट करने की बाध्यता के पीछे की मानसिकता के समीकरण आखिर क्या रहे होंगे? नारी की इस प्रदूषित छवि के लिए जिम्मेदार चाहे जो भी हो किन्तु फिलहाल यह समझ पाना थोड़ा कठिन जान पड़ता है कि रचनाधर्मी पुरुषवर्ग की कथित रचनात्मकता की इस अंधी दौड़ में कौन नारी की श्रद्धात्मक छवि का समर्थक है और कौन उसकी मांसल देह से स्फुटित मदमाती खुशबू का दीवाना। शायद यह असमंजस सदैव ही प्रश्नवाचक बना रहेगा। क्योंकि एक ओर 'नारी का कौमार्य' बन जाने की प्रबल इच्छा रखने वाली जमात से कविता का एक प्रतिनिधि साहित्य साधक यह भी कहता है कि 'माता बनी दूध भर आया/ किन्तु न भरता पापी पेट/ जननी बनकर भी पशुओं के/ आगे नग्न सकेगी लेट।' अब इसका क्या तात्पर्य निकाला जाए, क्या माता बन जाने के उपरांत ही नारी 'पशुओं' के समक्ष नग्न लेटी दिखाई देती है, उससे पूर्व नहीं? क्या अपनी रचनात्मक कही जाने वाली अभिव्यक्ति के लिए पुरुष वर्ग को, एक नवयौवना के सुंदर केश, कजरारी आंखें, रसीले होंठ, उन्नत वक्ष, मादक उरोज और मांसल जंघाओं के अतिरिक्त उसका सशक्त संवेदनात्मक, भावनात्मक और रचनात्मक व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता। समाज और साहित्य में रचनात्मकता के नाम पर कवियत्री ममता अग्रवाल की यह पंक्तियां चरितार्थ ही कही जाएंगी कि 'प्यार शब्द घिसते-घिसते/ चपटा हो गया/ अब हमारी समझ में सहवास आता है।'
संभव है कि नारी के संबंध में किसी भी उन्मुक्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए श्रंगार रस में व्याप्त असीमित संभावनाओं और विस्तृत परधि का तर्क प्रस्तुत किया जाए। किन्तु यह भी सत्य है कि रूमानियत के समंदर की गहराई और उसके किनारों को नापने के उपक्रम में प्रेम से लेकर वासना तक प्रत्येक संभावना की कल्पना को साकार करने की जुर्रत की गई। विचार मंथन करें तो यह सत्य अंधेरे में लाल बत्ती की भांति चमकता दिखाई देगा कि पुरुष की उपस्थिति के बगैर नारी का उपभोग असंभव है। नारी अकेले ही गर्भावस्था को प्राप्त नहीं कर सकती। संभवतः पुरुषार्थ के इसी दंभ के चलते नारी का चारित्रिक और वैचारिक स्तर हमेशा पुरुष मानसिकता से ही निर्धारित हुआ है। नारी की स्वतंत्रता के समर्थन में दावा करने वाले कुछ रचनात्मक पुरुष, सामंती युगों का अनुसरण करते हुए, नारी को अपनी वासना की तृप्ति का साधन घोषित करते रहे हैं। इसे श्रंगार रस के मनोवैज्ञानिक विशलेषण की विफलता ही कहा जाएगा कि प्रेम के विषय पर किए गए रचनाकर्म के परिणामों में ही साधनात्मक, उत्सर्गपूर्ण और विशुद्ध प्रेम का सर्वाधिक अभाव रहा है। नारी के मन और आत्मा का स्पर्श करने की फुर्सत उसके गालों, होठों और वक्षों के स्पर्श में गंवाई गई।
नारी को श्रंगारी रचनाओं की मनमोहक नायिका बनाकर प्रस्तुत करना तब तक गलत नहीं है जब तक उस पर कामुकता हावी न हो जाए। या फिर नारी पर हास्य अथवा व्यंग्य करना तब तक अशोभनीय नहीं है जब तक उसकी गरिमा एवं नारीत्व की भावनाएं आहत न हो रही हों। अभिव्यक्ति में शालीनता और सहजता से भी रचनात्मकता परोसी जो सकती है, उन्ही मौलिक मूल्यों के साथ, जिनके साथ उस रचना से संबंधित विचारभावों की उत्पत्ति हुई हो। संसारिक एवं सांस्कारिक आवरणों से मुक्त होकर रचनात्मकता का अधर्म तो निभाया जा सकता है, धर्म नहीं। कुछ साहित्य साधकों और फिल्म निर्माता-निर्देशकों ने श्रंगार और रुमानियत के विषयों पर प्रयोग करते समय नारी के संबंध में शालीन और सहज अभिव्यक्ति दी भी है। निराशाजनक तो यह है कि हम प्रेमचंद के कथा-साहित्य पर आवश्यक और अनावश्यक चर्चाएं और परिचर्चाएं तो अक्सर करते रहते हैं किन्तु कभी हिन्दी साहित्य की ऐसी गंभीर विसंगतियों को हमने एक सार्थक बहस के लिए उपयुक्त नहीं समझा। बहरहाल, वैचारिक और शाब्दिक अनुष्ठानों में तरह-तरह से छली गई नारी की घायल देह और हृदय पर 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' का मरहम आज भी काम देता है।

1 comment:

jaytu sanskritam said...

महोदय ! आपने जो " 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो'" यह पंक्ति उद्धृत की है यह "जयशंकर प्रसाद " जी की प्रसिद्द रचना "कामायनी" के "श्रद्धा सर्ग" की है जिसे आपने यहाँ "मैथिलीशरण गुप्त" जी की रचना बताया है। कृपया सुधार कर लें
हर हर महादेव