Wednesday, April 4, 2007

.......क्योंकि खुजली सिर्फ पीठ में ही नहीं होती...

क्योंकि खुजली सिर्फ पीठ में ही नहीं होती...

बात अगर एक दूसरे की पीठ खुजाने तक ही सीमित रहती तो शायद ठीक भी था लेकिन खुजली की अपरंपार महिमा का क्या कहें, ससुरी बहुत ज्यादा देर तक पीठ पर लदी नहीं रहती। (आप लोगों को लग रहा होगा कि मैंने अपना बात बीच से शुरू क्यों कि तो साहेबान-कद्रदान इसे आप मेरी खुजली का नाम दे सकते हैं। वैसे भी खुजली का प्रसंग सुश्री नोटपैट द्वारा छेड़ा जा चुका है, यह नाचीज़ तो उसी चर्चा को थोड़ा सा विस्तार दे रहा है) तो हाज़रीनों, अनादि काल से खुजली का एक संग्रहणीय इतिहास रहा है। खुजली का चमकीला वर्तमान लार टपका रहा है और खुजली का सुनहरा और टॉपलैस भविष्य हमें अपनी आगोश में भरने के लिए बाहें पसारे खड़ा है। तो प्यारे ब्लॉगियों, इत्ता तो गारंटी से पक्का समझिए कि खुजली का क्षेत्रफल असीमित है।
खुजली, शारीरिक खुजली और मानसिक खुजली के बिन्दुओं से विस्तार पा जाती है। शारीरिक खुजली का दायरा ज़रा संकुचित है। मसलन, शारिरिक खुजली सिर से लेकर पैर तक कहीं भी हो सकती है। बकलम नोटपैट पीठ में विशेषकर। वहीं मानसिक खुजली खुले आसमान की तरह अनंत है। इसके अंतर्गत आने वाली विभिन्न खुजलियों में, साहित्यिक खुजली, सामाजिक खुजली, राजनैतिक खुजली वगैरह-वगैरह आती हैं। खुजली को समझने से पहले यह भी जरूरी है कि खुजली की प्रवृति को समझ लिया जाए। दरअसल खुजली के मूल में आनंद छिपा है। खुजली का प्रकार चाहें जो भी हो वह आनंद ही देती है। आप खुजली को अवाइड कर ही नहीं सकते। निम्नस्तरीय से लेकर उच्चस्तरीय खुजली, बिना खुजाए शांत नहीं होती।
बसअड्डे के पास सड़क पर तांगे में लाउडस्पीकर लगाकर खुजली की दवा बेचने वाला बता रहा है कि लोग आजकल खुजली की दवा खरीदते ही नहीं। उन्हे खुजाने में ज्यादा मजा आने लगा है। तांगे पर टगें लाउडस्पीकर में लगातार रेकॉर्ड बज रहा है- 'दाद, खाज, खुजली की अचूक दवा... खुजाते रहते हैं... खुजाते-खुजाते परेशान हो जाते हैं... खुजाते-खुजाते जख्म बना लेते हैं... खून निकाल लेते हैं... एक हाथ कान में, दूसरा पुरानी दुकान में... बाप बेटे की खुजाता है, बेटा बाप की खुजाता है... पुरानी से पुरानी खुजली को जड़ से खत्म करता है अलताफिया लोशन... फ्री खुराक के लिए टांगे के पास आएं।', बेचारा दवाई वाला क्या जाने की आजकल लोगों को खुजली के खात्मे की नहीं बल्कि खुजली बढ़ाने और फैलाने की दवा चाहिए। मैं तेरी पीठ खुजाउं तू मेरी पीठ खुजा का कांसेप्ट सांस्कृतिक आयोजन का रूप लेता जा रहा है। एक-दो रोज़ पहले अपने कमल भाई ने खुजली के संक्रमण से पीड़ित कुछ लौंडे-लौंडियों की तस्वीरें भी तो दिखाई थीं। शीर्षक देखकर फोटो निहारने की खुजली फिर किसमें नहीं हुई। कुछ चुपचाप देखकर वापस हो लिए कुछ ने टिप्पणी करने कमल भाई की खुजली को थोड़ा आराम देने का प्रयास किया।
यह खुजली के विस्तारवाद का युग है। अब यहां खुजली सिर्फ पीठ तक ही सीमित नहीं है। कहीं धूप कहीं छाया है, सब खुजली की ही तो माया है। यहां लाउडस्पीकर पर बज रहा रेकार्ड बदलकर कुछ यूं होना चाहिए- 'दाद, खाज, खुजली की अचूक दवा... खुजाने और खुजवाने की फिराक में रहते हैं लेकिन न खुजा पाते हैं, और न खुजवा पाते हैं... खुजाते-खुजवाते परेशान हो जाना चाहते हैं... खुजाते-खुजवाते जख्म बना लेना चाहते हैं... खून निकाल लेना चाहते हैं... चाहते हैं कि एक हाथ हो कान में, दूसरा पुरानी दुकान में... बाप बेटे की खुजाए, बेटा बाप की खुजाए... और शर्म न आए... पुरानी से पुरानी खुजली का मज़ा देता है अलताफिया लोशन... फ्री खुराक के लिए टांगे के पास आएं और कहीं भी बस ज़रा सा लगाते ही भरपूर खुजाएं।'
ईमान से बताइए, क्या खुजली के मूल में आनंद का वास नहीं है? है ना... फिर नाराज़ क्या हो रहे हैं।

3 comments:

सुजाता said...

नाराज़ तो कोई नही है अनुराग।
हो भला कैसे ?सत्य वचन ही तो है।
टिप्पणी पाना भी तो आनन्ददायी ही है।
हमारे विषय को सही विस्तार दे दिया।
तो चलो तुम्हे अपनी शागिर्दी मे ले ही लेते है।
{lighter side} :))
अच्छा लिखा है\

अनूप शुक्ल said...

खुजली के मूल में आनन्द का वास है। सही है। :)
बढ़िया अंदाज है लिखने का। फोटू भी खूबसूरत है। :) ऐसे ही लिखते रहें।

arun said...

wonderful thoughts! accha tana-bana hai. really u got the depth of KHUJLI with its real meanings. keep on writing, u r great!