Tuesday, April 3, 2007

द्विअर्थी संवाद+अश्लील चुटकुले+फूहड़ प्रस्तुतिकरण=हास्य

द्विअर्थी संवाद+अश्लील चुटकुले+फूहड़ प्रस्तुतिकरण=हास्य
भागती-दौड़ती दिनचर्या और आपाधापी भरे जीवन से मिले फुर्सत के दो पलों में इंसान के लिए हास्य अचूक औषधि की तरह काम करता है। व्यस्तता की थकान से निजात पाए व्यक्ति के लिए हास्य की महत्ता को भुनाने की आजकल भरपूर कोशिश की जा रही है। विभिन्न टीवी चैनलों पर प्रसारित हो रहे तमाम हास्य कार्यक्रम इसका प्रमाण है। सास-बहू के कभी न खत्म होने वाले षड़यंत्रकारी ड्रामे और घर-घर की अजीबो-गरीब कहानियों के तिलिस्म को तोड़ने के प्रयोग में इन हास्य कार्यक्रमों को सफल माना जा सकता है किन्तु यह हास्य कार्यक्रम भी पूरी तरह स्वस्थ्य हास्य के मानकों से छेड़छाड़ करते ही नजर आ रहे हैं। इन कार्यक्रमों के सम्मानित मंच दूषित हास्य प्रस्तुतियों से लगातार प्रदूषित हो रहे हैं। दूषित हास्य की पराकाष्ठा स्वस्थ्य हास्य की संभावनाओं का खात्मा करने पर उतारू है और ऐसे में स्वस्थ्य हास्य की परिभाषा से इन कार्यक्रमों के आयोजकों ध्यान भी हटता जा रहा है।
कहा जा सकता है कि फूहड़ता और अश्लीलता परोस कर हास्य का हजामा बिगाड़ने की रणनीति व्यवसायिकता के समीकरणों का परिणाम हो, लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसे कार्यक्रम हास्य के नाम पर फूहड़ता बेचकर खुद को हंसी के सौदागर और हास्य प्रस्तुतियों के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन कर रहे कलाकार को हंसी का बादशाह भला कैसे घोषित कर सकते हैं? मात्र चुटकुलों के हास्यास्पद प्रस्तुतिकरण को आधार बनाकर कोई हास्य कलाकार होने की उपाधि से कैसे और क्यों विभूषित कर दिया जाता है, यह किसी की भी समझ से परे हो सकता है। द्विअर्थी संवादों पर लग रहे ठहाकों और बज रही तालियों के शोर में इस तरह के कई सवाल दब रहे हैं। झूठी प्रशंसा के दबदबे में यह सवाल बड़ा आकार भी ले रहे हैं। जबकि हास्य का यह बिगड़ता स्वरूप समाज के लिए उतना ही घातक है जितना समाज में फैल रही अश्लीलता के लिए उत्तरदायी अन्य कारक। टीआरपी रेटिंग बटोर रहे इन तथातथित हास्य कार्यक्रमों पर अभी तक कहीं से कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई है। नतीजा यह कि टीवी पर कौन सा मंच हास्य कवि सम्मेलन का है और कौन सा हास्य कार्यक्रम का, यह असमंजस बढ़ता ही जा रहा है। विशुद्ध हास्य से भटके हुए इन कार्यक्रमों का उद्देश्य और औचित्य भी आशंकाओं के घेरे में है। एक ओर हास्य कार्यक्रम के नाम पर लॉफ्टर की आड़ में द्विअर्थी संवादों का प्रचलन बढ़ा है और दूसरी ओर हास्य कवि सम्मेलन के कार्यक्रम के नाम पर संचालक हास्य पैदा करने के लिए साहित्यिक भाषाशैली की व्याकरण को भुलाकर मंच पर मदिरा की बोतल पकड़े, मौन रहकर मुस्कुराती खूबसूरत बाला के साथ हर बात पर 'वाह-वाह' कर रहा है। हास्य कवि सम्मेलन कहकर दिखाए जा रहे ऐसे टीवी कार्यक्रमों में देश के सुविख्यात हास्य कवियों की उपस्थिति हास्य के भविष्य की चिंता का बेहद निराशाजनक पहलू है।
स्वस्थ्य हास्य की परंपरा को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से शुरू किए गए टीवी के हास्य कवि सम्मेलन की गरिमा सभवतः अंतिम बार मूर्धन्य कवि अशोक चक्रधर ने बचाई है। उसके बाद टीवी का हास्य कवि सम्मेलन कब अपने मूल से खिसक गया ज्ञात नहीं। जो सच में हास्य कवि थे वह हाशिए पर चले गए और चुटकुलों को लेकर तुकबंदी करने वाले हास्य कवि प्रतियोगिताएं जीतने लगे। ऐसी प्रतियोगिताओं में स्थापित हास्य कवियों की मजबूरी देखिए कि वह शायद नाम गुम जाएगा की आशंका के चलते इन प्रतियोगिता में जज तो बन बैठते हैं लेकिन फैसला आयोजक और प्रयोजकों के हाथ में ही सुरक्षित रहता है। ऐसे ही टीवी के हास्य कार्यक्रमों में ऑफिस-ऑफिस आज तक विशुद्ध हास्य परोस रहा है, वह भी समाज और देश में व्याप्त कुव्यवस्थाओं पर तीखे व्यंग्य प्रहारों के साथ। अफसोस की बात तो यह है कि कामेडी के नाम पर फूहड़ता का कारोबार कर रहे कथित हास्य कार्यक्रमों के निर्माता ऑफिस-ऑफिस की लाइन और लोकप्रियता से तनिक भी प्रभावित नहीं लगते। इनके लिए द्विअर्थी संवाद, अश्लील चुटकुले और फूहड़ प्रस्तुतिकरण ही हास्य की परिभाषा है। अब टीवी शो से पैदा तमाम विकल्पों ने हास्य कवियों में मूल पर लौटने की संभावनाओं और उनकी कविता में सुधार की गुंजाइश की जरूरत को ही खत्म कर दिया है। जो हास्य कवि अपने शहर में कवि सम्मेलन के मंच पर श्रोताओं द्वारा हूट कर दिया जाता है वह अपनी किस्मत लॉफ्टर शो में आजमाने चला आता है। हास्य कार्यक्रमों के प्रथम में नहीं तो द्वितीय में और द्वितीय में नहीं तो तृतीय आवृति में ही सही मौका सबको मिलता है। ऐसे कार्यक्रमों ने जाने कितने ही असफल हास्य कवियों को एक सफल हास्य कलाकार बना दिया है। बचे हास्य कलाकार तो वो ऊट-पटांग चुटकुलों के सहारे अपनी दुकान चला रहे हैं। ऐसे कलाकारों के लिए राहत की बात यह है कि कार्यक्रम के आयोजक उनका माल तगड़े मुनाफे में बेच रहे हैं और वह भी हास्य का लेबल लगा कर। विडंबना यह कि कॉमेडी के गिरते स्तर को बचाने के लिए कॉमेडी आइटमों में जॉनी लीवर और राजू श्रीवास्तव की रचनात्मकता भी बेबस नजर आती है। सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार को खोज रहे टीवी के प्रतियोगी कार्यक्रमों में अपनी लाजवाब फूहड़ता के प्रस्तुतिकरण से निर्णायक मंडल को लोटपोट कर देने वाले के सिर विजेता का ताज होता है और मौलिक हास्य का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले जनता के पसंदीदा कलाकार को पुरुस्कार में मिली संत्वना से ही काम चलाना पड़ता है। ऐसी प्रतियोगिताओं के फैसले जनता को भी अचंभित कर रहे हैं, जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि यह कार्यक्रम जनता के लिए नहीं बल्कि विज्ञापनों के लिए बन रहे हैं।
सोचने वाली बात यह भी है कि हास्य पैदा करने के लिए किए जा रहे इन जबरन प्रयोगों को जब सपरिवार ही नहीं देखा जा सकता तो फिर आखिर यह प्रयास समाज के किस वर्ग को हंसाने के लिए किया जा रहा है। वह हास्य कहां गया जो लोगों को हंसाने के साथ स्वस्थ्य मनोरंजन भी देता था। या फिर यह अनुमान सटीक है कि टेलैंट हंट प्रतियोगिता की होड़ में लॉफ्टर और कॉमेडी के कलाकारों की खोज ने अपने उद्देश्यों से भटक कर हास्य को भी लापता कर दिया। कारण चाहे जो भी हो लेकिन हास्य के साथ एक भद्दा मजाक तो हुआ है। हास्य की लीपापोती के इस ग्लैमर शो में हास्य का मूल स्वरूप क्षत-विक्षत हुआ है। हास्य रस को हाई-प्रोफाइल बनाने के चक्कर में उसे विषैला किया जा रहा है और सब खामोश हैं, वह भी जो विशुद्ध हास्य कवि अथवा कलाकार के रूप में सुविख्यात हैं और वह भी जो लॉफ्टर क्लब चलाते हैं। या फिर शायद यह समझ लिया गया होगा कि लोगों का हंसना जरूरी है, लोग कैसे हंस रहे हैं इससे क्या फर्क पड़ता है। अगर ऐसा है तो अपनी हास्य रचनाओं से हास्य को गरिमा और गौरव के पायदान तक लाने वाले प्रतिनिधि हास्य की मौजूदा बदहाली से मुंह भला कैसे मोड़ सकते हैं। जिनके प्रयासों से लोगों ने हास्य के महत्व को जाना है, समझा है वह खुद अपने संघर्ष को बेनतीजा होते भला कैसे देख सकते हैं। क्या लॉफ्टर, कॉमेडी और वाह-वाह के नाम से अपमानित होते हास्य को उसकी मूल परिभाषा पर वापस लाने की पहल कभी हो सकेगी? या फिर मसखरी ही हास्य की नई परिभाषा मान ली जाएगी।


('दैनिक जागरण' में प्रकाशित)

6 comments:

Anonymous said...

ये सही है कि इस हास्य मे फुहड़ता है लेकिन राजू श्रीवास्तव, सुनिल पाल , बलवण्त मान के हास्य की बात कुछ और है। इनके हास्य हंसाते भी है लेकिन इनके रजनिती , क्रिकेट पर कसे गये व्यंग्य हंसी के साथ कभी कभी तिलमिला देते भी है।

Piyush said...

निश्चित तौर पर राजू श्रीवास्तव की बात अलग है-लेकिन मैं धीरे धीरे देख रहा हूं कि राजू भईया भी ज्यादा उत्पादन के चक्कर में फूहड़ हो रहे हैं..धीरे धीरे ही सही यानि जिसके पास क्वालिटी है-वो भी बाजार के दबाव में सिर्फ क्वांटिटी पर ही ध्यान देने में जुट गया है।

हरिराम said...

हिन्दी सिर्फ हास्य-व्यंग्य, कविता, कहानी, मसखरों, भाण्डों और जोकरों की भाषा बनकर रह गई है। वैज्ञानिक-तकनीकी-लेखन, मेडिकल, इंजीनियरिंग, डैटाबेस-प्रोजेक्ट प्रबन्धन... तो दूर की बात है, कुछ लोग अपने व्यापारी-हिसाब-किताब(accounts) हिन्दी में करते थे, अब कम्प्यूटरीकरण के बाद मजबूरन् सिर्फ अंग्रेजी में ही करने लगे हैं। कौन जिम्मेदार है इसका? देवनागरी लिपि का जटिल होना या हिन्दी-भाषियों की मानसिकता का जटिल होना? या कम्प्यूटर कूटों की क्लिष्टता?

MSA said...

I THINK THAT LOGO KO LIFE MAIN HANSTE RAHNA CHAHIYE. BHALE HI WO KISI BHI TARAH SE AAYE. CHAHE SEXY BATON SE BHI.
GOOD BY

MSA said...

MAIN IS BAARE ME JYAADA NAHI BAS ITNA KAHOONGA KI DUAL MEANING JOKES LIMITED HOON TO USE KIYE JA SAKTE HAIN.
------------BY

surendar said...

sach me bhut acha likha ha