शायद! मां का कोई दोष नहीं...
-अनुराग मुस्कान
एक आम धारणा है कि अच्छा पैसा कमाना है तो दिल्ली, मुम्बई अथवा इन जैसे बड़े शहरों का रुख करना चाहिए, क्योंकि यहां रोजगार के तमाम विकल्प मौजूद हैं। यही धारणा आज से दस साल पहले मुझे भी दिल्ली ले आई। तब से आज तक मैं दिल्ली की भीड़ में गुम हूं। नौकरी करता हूं और तनख्वाह पाता हूं। कुल मिलाकर इस शहर ने मुझे भी अपनी तरह व्यवसायिक और मशीनी बना दिया है। अपने छोटे शहर आगरा के मुकाबले जिंदगी बिलकुल बदल गई है। अब इस बदलाव को मैंने अनमने मन से ही सही स्वीकार भी कर लिया है। लेकिन मेरी मां इस शहर से और इसके रहन-सहन से घबराई हुई है। मां, पिता के स्वर्गवास के बाद उन्ही के स्थान पर आगरा में सेना की एक शाखा में सिविलियन क्लर्क की हैसियत से कार्यरत थीं। साथ रहने की मेरी जिद के हाथों मजबूर होकर मां ने साल भर पहले अपना तबादला दिल्ली करा लिया। अब वह सेना भवन में कार्यरत हैं। अब सुबह जागने से लेकर रात को सोने तक उनकी जिंदगी में सब कुछ तय हो गया है। नौएडा स्थित घर से बस स्टॉप तक वही सड़कें, वही चार्टेड बस, कृषि भवन से सेना भवन तक तेज चाल से रोज की वही भागमभाग। एक शहर में बाइस सालों की जमी-जमायी अपनी जीवनशैली को छोड़कर अपने रिटायर्मेंट से मात्र आठ साल पहले, हाई ब्लड-प्रेशर की समस्या के साथ दिल्ली में खुद को स्थापित करने का उनका फैसला सच में हिम्मत का ही काम था।
वैसे तो उनके दफ्तर की कार्यावधि सुबह साढ़े नौ से शाम साढ़े पांच तक है किन्तु प्रातः सात बजे ही उन्हे घर से निकलना पड़ता है और शाम आठ बजे जब दिल्ली के व्यस्त ट्रैफिक से लड़ती-झगड़ती खचाखच भरी बस का सफर करके वह बदहवास हालत में लौटती हैं तो एक पल को मुझे यह अहसास होता है जैसे किसी गांव में स्वछंद विचरण करने वाली कोई गाय एक दौड़ते-भागते शहर की रेलमपेल के बीच छोड़ दी गई हो। मां को अपना शहर बहुत याद आता है। जहां लोगों के पास एक दूसरे से मिलने की फुर्सत होती थी। एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होकर सांत्वना देने और हाल-चाल पूछने के क्रम में आत्मयिता होती थी। त्योहारों पर अड़ोसी-पड़ोसी एक संयुक्त परिवार की तरह हो जाया करते थे। चाहे मकान मालिक हो या किरायदार, सब मिलकर उत्सव मनाया करते थे। यहां तो किरायदार को न कोई त्योहार पर पूछता है और न शादी-विवाह के समारोह में न्यौता ही देता है। अड़ोस को पड़ोस से कोई मतलब ही नहीं। चेहरे पर भावशून्यता की परत चढ़ाए बस जिसे देखो कहीं भागा जा रहा है। किसी के पास किसी से मिलने की फुर्सत नहीं है।
कंक्रीट के जंगल में अपना आशियाना भी दमघोंटू लगता है। मकान की दहलीज से ही सड़क शुरू हो जाती है, न बागवानी का सुख और न आंगन में सुस्ताने का विकल्प। कपड़े सुखाने के लिए अरगनी बांधने तक की जगह नहीं। और अगर आप किराएदार हैं तो दीवार पर कील ठोंकने तक की पाबंदी है। बाहर निकलो तो, न कहीं पतंग लूटते बच्चे दिखाई देते हैं और न कहीं गलियों में क्रिकेट खेलते बच्चे। बस दिखते हैं तो दौड़ते वाहनों की चपेट में आने से बचते-बचाते लोग। डर तो इस बात का है कि तेजी के साथ यही जीवनशैली अब छोटे शहरों को भी अपनी गिरफ्त में ले रही है। यही सोचकर मेरी तरह मां भी अब इस बदलाव को अनमने मन से ही सही स्वीकार कर करने की आदत डाल रही है।
4 comments:
हाँ अनुरागजी, कांक्रीट के जंगल में ऐसे दृश्य रोज ही उपस्थित होते हैं।
सच कह रहे हैं अनुराग जी।
भावनायें तो आज बी हैं हमारे पास पर वक्त नहीम उन्हैं सहेजने को।
खैर मैं भी मूलतः आगरा से ही हूँ। इलेक्ट्रोनिक मीडिया से ही ताल्लुक रखता हूँ, वहीं 'मून टी॰वी॰ से शुरूआत की थी, दिल्ली से भटककर देहरादून आ पहुँचा हूँ।
बाकी कहानी तो वैसे ही है।
मेरा ब्लोग देखें।
http://deveshkhabri.blogspot.com/
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
सच कह रहे हैं अनुराग जी।
भावनायें तो आज बी हैं हमारे पास पर वक्त नहीम उन्हैं सहेजने को।
खैर मैं भी मूलतः आगरा से ही हूँ। इलेक्ट्रोनिक मीडिया से ही ताल्लुक रखता हूँ, वहीं 'मून टी॰वी॰ से शुरूआत की थी, दिल्ली से भटककर देहरादून आ पहुँचा हूँ।
बाकी कहानी तो वैसे ही है।
मेरा ब्लोग देखें।
http://deveshkhabri.blogspot.com/
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
शायद! मां का कोई दोष नहीं।
ऐसा सभी महसूस करते हैं। इस वास्ते सभी पढ़ें तो अच्छा रहेगा। भारतीय पक्ष पत्रिका दूर देहात तक जाती है,जहां अभी net की सुविधा नहीं है। ऐसी स्थिति में आपका यह लेख हमारी पत्रिका में हो तो कैसा रहेगा। इच्छा की प्रतिक्षा में।
ब्रजेश क्षा
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