'प्रिय चिट्ठेकार,
आपने इस आलेख पर रुकने का निवेदन स्वीकार किया, धन्यवाद! इस आलेख को पढ़कर आपका समय नष्ट नहीं होगा, ऐसा मेरा विश्वास है... विश्वास तो यह भी है कि इस आलेख में सोची गई बातों को हम सब को सोचना होगा... सिर्फ सोचना ही नहीं होगा बल्कि अभी से इस पर काम भी करना होगा... कृपया मेरे विश्वास की लाज रखिए.....'
जूठन का मोल
-अनुराग मुस्कान
कहते हैं कि अगर पापी पेट न होता तो कोई समस्या ही न होती। पेट की खातिर दो वक्त की रोटी जुटाने की मशक्कत में इंसान थक जाने के बावजूद भी दौड़ रहा है। रोटी के लिए जारी यह मैराथन जिंदगी से पहले खत्म होने वाली भी नहीं है। इस मैराथन में कोई सबसे आगे है तो कोई सबसे पीछे। पेट की भूख तो सबकी समान है, किन्तु पेट की क्षुधा शांत करने के विकल्प सर्वथा असमान। किसी का पेट जरूरत से ज्यादा बाहर है, तो किसी का बिलकुल पिचका हुआ। किसी को भूख न लगने की बीमारी है, तो किसी को भूख ज्यादा लगने की। कोई लाखों कमा रहा है, तो कोई हाथ पसारे खड़ा है। मेरी समझ से यह असमानता भी इंसान की ही बनाई हुई है।
दिल्ली के सरोजिनी नगर मार्किट में एक वृद्ध भिखारिन ने मुझसे एक रुपए की भीख मांगी। मैंने जब उससे यह पूछा कि वह एक रुपए का क्या करेगी तो उसने बताया कि वह इससे खाना खरीदकर खाएगी। मैंने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा कि, 'एक रुपए में खाना भला कहां मिलता है?', तो उसने बताया कि सड़क के किनारे जो खाने की रेहड़ी लगाते हैं, वो एक रुपए में जूठन बेच देते हैं। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मैंने उस वृद्ध भिखारिन को जूठन न खाकर, ताजा भोजन करने की हिदायत के साथ दस रुपए देकर विदा किया। लेकिन सवाल यह उठता है कि वह ताजा भोजन आखिर कब तक खा सकती है? उसे देर-सबेर, मजबूर होकर जूठन खानी ही पड़ेगी। इस तस्वीर का एक दुःखद पहलु यह भी है कि मैंने बड़े-बड़े होटलों और रेस्टोरेंटों में अक्सर देखा है कि लोग ढ़ेर सारा भोजन थाली में छोड़ कर ही उठ जाते हैं। बाद में उनकी वह जूठन कूड़ेदन में फेंक दी जाती है। या फिर संभव है कि बेच भी दी जाती हो। बहरहाल मैंने अक्सर बड़े बाजारों और मॉलस् के आसपास लोगों की दुत्कारें खाते अनाथ और गरीब बच्चों को कूड़ेदान से आईसक्रीम की गीली स्टिक और यूज-एन-थ्रो प्लेटें उठाकर चाटते देखा है।
कुछ ही दिन पहले, मैकडोनॉल्ड से प्राप्त एक टोमॉटो सॉस का बचा हुआ पॉउच जब मैंने ऐसे ही एक बच्चे को दिया तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उसने वह अदना सा पॉउच भी अपने तीन भाई-बहनों के साथ मिल-बांट कर खाया। अभावग्रस्त उनके चेहरों पर खुशी का पारावार देखकर मुझे इस बात का अहसास हुआ कि हमें अपनी भूख के मुताबिक अपने खाने की प्लेट को भी सीमित करना चाहिए। हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि थाली में भोजन छोड़ना ईश्वर का अपमान होता है। वह, भोजन ग्रहण करने से पहले और भोजन ग्रहण करने के पश्चात नियमित रूप से परोसी गई थाली को प्रणाम किया करते थे। ईश्वर को, भोजन प्रदान करने के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद ज्ञापित करते थे। लेकिन दुर्भाग्य यह कि अत्याधुनिकीकरण के चलते, तेज रफ्तार जीवनशैली ने हमारे पास इतना समय ही शेष नहीं छोड़ा कि हम अपने बुजुर्गों के आदर्शों का अनुसरण कर सकें। यह दुर्भाग्य हमारे द्वारा ही पोषित है, यह हमारा नितांत निजी दुर्भाग्य है क्योंकि अपनी वर्तमान जीवनशैली के लिए हम स्वंय उत्तरदायी हैं। हालांकि कुछ लोग अन्न की स्तुति की इस परंपरा को आज भी जीवित रखे हुए हैं, किन्तु यह आंधी-तूफान में किसी दीपक की लौ को जैसे-तैसे जिवाए रखने जैसा है।
अपने अविवाहित जीवन खंड में नौकरी की खातिर, मैं और मेरे दो मित्र अपने-अपने घरों से दूर यहां दिल्ली में एक कमरा लेकर रहा करते थे। शाम को दफ्तर से थके-मांदे लौटने के बाद अक्सर ही हम पास के एक रेस्टोरेंट से खाना मंगाया करते थे। रोज ही ढेर सारा खाना बच जाया करता था जिसे हम कूड़ेदान के हवाले कर दिया करते थे। फिर एक दिन हमारे कमरे का झाड़ू-पोछा करने वाली बाई ने हमसे निवेदन किया की हम बचा हुआ भोजन फेंकने की बजाए उसे दे दिया करें, उसे, अपने घर के रास्ते में पड़ने वाले मंदिर पर बहुतेरे भिक्षु मिलते हैं, वह यह भोजन उन्हे दे दिया करेगी। कूड़ेदान में भोजन के अनादर से तो यह कहीं बेहतर था। उस रोज अपनी व्यस्त दिनचर्या पर हमें बहुत शर्मिंदगी हुई। मालूम हुआ कि मैट्रोपोलेटियन शहरों ने रोजगार के बहाने इंसान को एक मशीन बना कर रख दिया है। भोजन के अनादर की बात को कभी हम अपनी व्यस्तता से ऊपर उठकर सोच ही नहीं सके थे। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। उसके पश्चात हम अपनी-अपनी भूख के मुताबिक भोजन मंगाने लगे। लेकिन अपने अड़ोस-पड़ोस में भोजन का यह अनादर मैं आज भी अक्सर देखता रहता हूं।
प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से घर और बाहर, हमारे माध्यम से होने वाले भोजन के अनादर के प्रति हमें सजग हो जाना चाहिए। घर में ज्यादा मात्रा में पका खाना जब बच जाता है तो किसी अन्य विकल्प को तलाशने के झंझट से बचने के लिए उसे फेंक दिया जाता है। ऐसा ही बाहर यानि होटल और रेस्टोरेंट में होता है, कि सौ रुपए की प्लेट में से साठ रुपए का खाकर चालीस रुपए का खाना छोड़ दिया जाता है। जूठन का यह प्रतिशत ऊपर नीचे हो सकता है, लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि क्या यही चालीस, तीस, बीस और दस रुपए जोड़ कर जरूरतमंद, अनाथ, बेसहारा और गरीब लोगों और बच्चों के लिए किसी रोजगारपरक योजना की नीव नहीं रखी जा सकती। या फिर क्या हम यह रुपये जोड़ कर इस दिशा में कार्यरत किसी संस्था को नहीं दे सकते। और यदि हम कोई कार्य निस्वार्थ भाव से नहीं भी करना चाहते, तब भी संभवतः उस डोनेशन की पावती से हमें इन्कम टैक्स में छूट तो मिल ही सकेगी। विचारणीय है कि थालियों में बची जूठन परोक्ष रूप से समाज के एक उपेक्षित वर्ग की भूख बढ़ा रही है, जिससे उनमें समाज के प्रति विद्रोह का संक्रमण फैल रहा है। यदि यह जूठन थालियों में बचना बंद हो जाए तो शायद इस उपेक्षित वर्ग के उत्थान की एक पहल को सकारात्मक सोच की दिशा मिल सके। अन्यथा भविष्य में हमें खाने के साथ अपनी ही जूठन का मोल, अतिरिक्त एवं भारी मूल्य देकर चुकाना पड़ेगा।
(7-03-2007 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित)
13 comments:
अनुराग जी, एसा विचार परक लेख के लिये धन्यवाद.
शेष हम पढ़ने वालों पर निर्भर है कि हमने क्या सीखा.
अनुराग जी, अंतरमन को झकझोरने के लिये धन्यवाद
अनुराग जी,
इस तरह की बातें ज़्यादातर लोगों को झकझोरती तो हैं परंतु कम ही ऐसे होते हैं जो इन पर अमल करते हैं। शायद संस्कारों का दोष है। जो भी हो, आपका कहना उचित है। ब्लॉगर मंडली में से ही कुछ लोग आपके सुझाये रास्ते पहले से ही चल रहे हैं। आप यहाँ देखें और यथासम्भव मदद करें और दूसरों को प्रेरित करें-
विचारोत्तेजक लेख के लिये बधाई। यह लेख सभी को सोचने पर मजबूर करेगा।
भाई अनुराग, निश्चित ही आपके विचार सराहनीय हैं।
दर-असल आज हमारी मानसिकता ऐसी हो चुकी है कि हम प्लेट में भोजन छोड़ देना पसंद करते हैं लेकिन उसी पैसे से किसी को भोजन कराना पसंद नही करते। हम किसी को खाना नही खिला सकते भले ही उतनी ही कीमत का भोज्य पदार्थ हम होटल वगैरह में प्लेट में छोड़ सकते हैं।
हमारी जीवन शैली में दिखावा एक बड़ा स्थान रखता है।
सच कह रहे हैं अनुराग जी।
भावनायें तो आज बी हैं हमारे पास पर वक्त नहीम उन्हैं सहेजने को।
खैर मैं भी मूलतः आगरा से ही हूँ। इलेक्ट्रोनिक मीडिया से ही ताल्लुक रखता हूँ, वहीं 'मून टी॰वी॰ से शुरूआत की थी, दिल्ली से भटककर देहरादून आ पहुँचा हूँ।
बाकी कहानी तो वैसे ही है।
मेरा ब्लोग देखें।
http://deveshkhabri.blogspot.com/
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
शुरू में शीर्षक देखकर लगा कि आप वैचारिक जूठन पर लिख रहे हैं। लेख में आपकी संवेदनशीलता का परिचय मिलता है। ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो किसी के लिये बेकार, अनावश्यक या त्याज्य हैं तो किसी दूसरे के लिये बहुत ही उपयोगी। और आजकल तो चिन्तनशील लोग 'जीरो वेस्ट'(Zero Waste) की बात कर रहें हैं और धरती पर शाश्वत विकास(sustainable development) के लिये इसे अत्वाश्यक माना जा रहा है।
आपके विचार पढ कर अच्छा लगा, बहुत सही फर्माया आपने, वाकई सोचने और समझने की बात है।
अच्छा है. विचारणीय तथ्य.
अनुराग जी, बिल्कुल सही कहा आपने। आज के दौर में यह व्यावहारिक कार्य है। अन्यथा लोग प्राय: बड़ी-बड़ी बातें भर करते हैं, न कि कुछ व्यावहारिक।
रूका, पढ़ा, और अच्छा लगा।
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