Wednesday, April 11, 2007

.........हम बंदर ही अच्छे थे!

हम बंदर ही अच्छे थे

प्रिय पाठकों, उपरोक्त शीर्षक पूर्णतः मेरी निजी मान्यता है, हां, यह बात दीगर है कि अंत में मेरे विचारों से आप भी इत्तेफाक रखने लगें। आपकी तरह मैंने भी सुना है इंसान पहले बंदर था और मेरा मानना है कि बेहतर होता कि इंसान आज भी बंदर ही होता। काफी जद्दोजहद और ऊहापोह के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हम बंदर ही अच्छे थे। हम जब तक बंदर थे, लाइफ में कोई टेंशन नहीं थी। बस, बंदर से इंसान बनते ही सारी टेंशन शुरू हो गयी। आजकल आलम यह है कि बंदर, इंसानों की वजह से टेंशन में रहने लगे हैं और इंसान, बंदरों की वजह से। वैसे देखा जाए तो अपने बंदरकाल में स्थितियां और परिस्थितियां हमारे ज्यादा अनुकूल थीं। बंदर होकर जिस रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी की हमने कभी चिंता भी नहीं की, इंसान बनते ही, वही रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी हमारी मूलभूत समस्या बन गया। सही मायनों में स्वतंत्रता का रसास्वादन भी हमने बंदर रहते ही किया है। इंसान बनने के बाद वाली स्वतंत्रता तो हमारा भ्रम मात्र है। ठीक ऐसा ही हम लोकतंत्र के बारे में भी कह सकते हैं। हम बंदर थे तो कम से कम गुलाटी मारने पर तो हमारा एकाधिकार था, अब यह स्टंट भी राजनीतिज्ञों ने पेटेंट करा लिया है। नेताओं की गुलाटियां देखकर तो आजकल के बंदर भी गुलाटी मारना भूल गए हैं। दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिए कि गुलाटी पर बंदरों का ही एकाधिकार नहीं रहा। इधर, बुरा न बोलने, बुरा न सुनने और बुरा न देखने की परंपरा भी बंदरों से ही शुरू हुई और बंदरों पर ही खत्म भी हो गई। बंदरों से बुरा न बोलने, सुनने और देखने के संस्कार अगर इंसान ग्रहण करता तो कोई बात भी थी, अब बंदर बेचारा क्या बुरा बोलेगा, क्या बुरा सुनेगा और क्या बुरा देखेगा।
जरा सोचिए कि इंसान होकर हमने आखिर पाया ही क्या। जबकि बंदर रहते फायदा ही फायदा था। बंदर रहते हुए एक जो सबसे बड़ा फायदा था वह यह था कि मंहगाई चाहे जितनी बढ़ जाए, अपना एक धेले भर का खर्चा नहीं होता था। जंगल में स्वछंद गुलाटी मारते थे, कभी इस पेड़ पर तो कभी उस पेड़ पर। न नौकरी की चिंता, न रोटी की फिकर। आम तोड़ा आम खा लिया, अमरूद तोड़ा अमरूद खा लिया। केले के पेड़ों पर तो पुश्तैनी कब्जा रहता था अपना। विडंबना देखिए कि जो माल कभी अपना था, अब खरीदकर खाना पड़ता है। कुछ भी खरीरने के लिए पहले कमाना भी पड़ता है। अपनी खून-पसीने की कमाई पर टैक्स देना पड़ता है, सो अलग। टैक्स अदा करने के बाद तो कुछ खास इंसान ही आम खा पाते हैं, आम इंसान तो कुछ भी खाने से पहले बीस बार सोचता है। इस मामले में बंदर आज भी लकी हैं। आम, अमरूद और केले, जो भी मन करता है, ठेले से उठाकर भाग खड़े होते हैं। इंसानों ने बंदरों से भले ही कोई नसीहत न ली हो मगर बंदरों ने इंसान से छीना-छपटी का खेल बखूबी सीख लिया है। मेरा विश्वास है कि जो आज बंदर हैं वो कल निश्चित ही हमारी तरह इंसान बनेंगे।
हम जब बंदर थे तो सबकी एक ही भाषा थी- खी-खी,खी-खी, खों-खों,खों-खों। इंसान बनते ही हमने अपनी-अपनी अलग भाषा बना ली। भाषा भी ऐसी कि एक दूसरे की समझ से परे। बंदर थे तो सब एक बराबर थे न कोई छोटा, न कोई बड़ा, न कोई अमीर, न कोई गरीब, न कोई नेता, न कोई जनता। संसद की जरूरत भी हमें इंसान बनकर ही पड़ी, बंदर रहते हुए तो कभी हमें संसद की कमी महसूस नहीं हुई। हम बंदर होते तो शायद आरक्षण के बारे में सोचते तक नहीं, क्योंकि तब हमें आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होती। सब एक बराबर जो होते।
वैसे इंसान है बहुत चालाक। जिस बंदर से इंसान बना, इंसान बनते ही उसी बंदर को मदारी बनकर अपने इशारों पर नचाने लगा। कुछ होशियार किस्म के मदारी तो संसद तक जा पहुंचे और संसद में बैठकर अपने अलावा सभी को बंदर समझने लगे। यह इंसान मदारी होने का लाभ तो उठाते ही हैं, गुलाटी मार कर बंदर का हिस्सा भी गटक जाते हैं। बिजली विभाग की लापरवाही से लटकते बिजली के तार से उलझकर आज भी जब कोई बंदर अपनी जान गंवाता है तो इंसान पहले उसे चौराहे पर रखकर चंदा वसूलता है और अपनी जेब भरकर, मरे हुए बंदर को कूड़े में फेंककर चल देता है। आपने बंदर के हाथ में उस्त्रा वाली कहावत जरूर सुनी होगी। लेकिन यह कहावत वर्तमान संदर्भों में बंदरों पर प्रासंगिक नहीं रह गई है। इंसान से परेशान बंदरों के हाथ में उस्त्रा अगर आ भी गया तो वो उसे अपनी ही गर्दन पर चलाना बेहतर समझेंगे। अलबत्ता इंसान के हाथों में उस्त्रा इन दिनों कहीं ज्यादा खतरनाक है। अंततः मनुष्य योनि में व्याप्त आपाधापियों और अनिष्ट की आशंकाओं को देखते हुए कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हम बंदर ही अच्छे थे। आपका क्या ख्याल है?

3 comments:

योगेश समदर्शी said...

aapaka phont nahee dikhataa jee.
bindi bindi chapa gayee hai.

विशाल सिंह said...

शायद आप ठीक कह रहे हैं।
मैंने एक फिल्म देखी थी 'गॉड मस्ट बी क्रेजी', उसमें अफ्रीका के कालाहारी में एक आदिवासी परिवार की कहानी है, जिसका सभ्यता से परिचय नहीं हुआ था। बन्दरों की तरह सब भूख लगने पर मिल बॉट के खाते थे और अपनी दुनिया में मस्त थे। सभ्यता से उनका परिचय हवाइजहाज से गिरी एक कोका कोला की बोतल के माध्यम से हुआ, और उसी दिन से जलन, संपत्ति और लालच जैसी चीजों से भी परिचय हुआ। एक हंसता खेलता कुनबा, सभ्यता के संपर्क में आने के बाद पहले से ज्यादा दिक्कत में आ गया।

ePandit said...

बहुत खूब तो फिर से बंदर होने का कोई तरीका निकाला जाए। :)

वैसे मेरी तरह बहुत से लोग नहीं मानते कि हम लोग पहले बंदर थे।