Saturday, April 14, 2007

कुत्ता मत कहो...प्लीज..!

कुत्ता मत कहो...प्लीज..!

रात्रिभोज के बाद हम लोग टीवी देख रहे थे। टीवी पर जयपुर से कुत्तों के सामूहिक विवाह समारोह की खबर आ रही थी। शादी का कार्ड भी दिखाया गया। लेडीज संगीत, मेहंदी की रस्म, पाणिग्रहण संस्कार, प्रीतिभोज और विदाई समारोह, सभी का कार्यक्रम था। बीच-बीच में कुत्तों के कोरियोग्राफर और ड्रेस डिजायनर बता रहे थे कि उन्होने कुत्तों को इंसान जैसा बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए गधों की तरह मेहनत की है। कुत्ते तीन महीने से अपने विवाह की तैयारी के लिए ट्रेनिंग पा रहे थे, इस दौरान उनके खाने पीने का मैन्यू भी प्री-डिसायडेड था। कुल मिला कर कुत्ते किसी रियलिटी शो के प्रतिभागियों जैसा ठाठ काट रहे थे। वह तो ऐन मौके पर हिन्दु रीति-रिवाजों के मखौल का हवाला देकर शिव सैनिकों ने इस समारोह के अभूतपूर्व होने में खलल डाल दिया, नतीजतन न जाने कितने ही कुत्ते कुंवारे रह गए। रात्रिभोज पर सपरिवार पधारे मेरे मित्र यह खबर देखकर इमोशनल हो गए, बोले- 'हमारा मार्शल भी इन डॉगीज् से कुछ कम नहीं है।', 'अच्छा, आपके कुत्ते का नाम मार्शल है।', मेरा इतना कहना था कि उनकी सुपुत्री ने मुझे कच्चा खा जाने वाली निगाहों से घूरते हुए गुर्राकर कहा, 'अंकल, मार्शल को कुत्ता मत कहिए...प्लीज! ही इज लाइक ऑवर फैमिली मेंबर।'
देख रहा हूं कि डॉगी लोग जब से फैमिली मेंबर बने हैं तब से कई फैमिली मेंबरों की स्थिति डॉगी जैसी हो गई है। एक बानगी देखिए। शहर में सर्कस लगा है। मम्मी-पापा, माइकल, स्वीटी और रैम्बो, सब सर्कस देखने जा रहे हैं। नाम सुन कर कनफ्यूज मत होइए, माइकल बड़े बेटे का नाम है, स्वीटी माइकल की छोटी बहन है और रैम्बो पालतू कुत्ता माफ कीजिएगा पैट डॉगी का शुभनाम है। घर में ताला नहीं लगा सकते। समय बहुत खराब चल रहा है। चोरी-डकैती का डर है। इसलिए घर की रखवाली के लिए बूढ़े और बीमार मां-बाप को छोड़े जा रहे हैं। डॉगी को सर्कस में साथ ले जाना भी जरूरी है क्योंकि वह स्वीटी के बगैर आधे घंटे भी नहीं रह सकता। दोनों एक ही कोल्ड ड्रिंक शेयर जो करते हैं। बड़ी मुश्किल से डीएम साहब के पीए से फोन करवा कर सर्कस के मैनेजर से रैम्बो को सर्कस पंडाल के अंदर ले जाने की परमीशन हासिल की है। रैम्बो सिर्फ सर्कस देखने ही नहीं बल्कि मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने भी इसी तरह जाता है।
मार्शल कह लीजिए या रैम्बो, कुत्ते आजकल स्टेटस सिंबल बन गए हैं। आपकी कार कितनी भी महंगी क्यों न हो वह तब तक बेकार है जब तक उसकी अधखुली खिड़की में से कोई झबरा, चपटा अथवा पुंछकटा कुत्ता अपना मुखमंडल बाहर निकाल कर पूरी दुनिया को जीभ न चिढ़ा रहा हो। अलसीशियन और पॉमेरीयन डॉगीज की जाति, वर्ग, बनावट, कद और काठी अपने मालिक की हैसियत का पैमाना है। औलाद भले ही अपने कर्मों से माता-पिता की नाक कटवा दे लेकिन किसी दुर्लभ विदेशी प्रजाति की ब्रीड के डॉगी अपने मालिक का सिर कभी शर्म से नहीं झुकने देते। और डॉगी अगर किसी दो दुर्लभ प्रजातियों की क्रास ब्रीड का हो तो मालिक को अपने होनहार बेटे से ज्यादा डॉगी पर गर्व हो सकता है।
मेरे एक मित्र निरंतर मुझे पर एक डॉगी पाल लेने का दबाव बनाते रहते हैं। मेरी सामाजिक मान्यता में वह एक डॉगी की कमी का हवाला देते हुए तर्क सहित कहते हैं, 'अपने चारों ओर नजरें घुमाइए जनाब, देखिए, आपके चारों ओर कूड़ा ही कूड़ा और गंदगी ही गंदगी है। अपनी बेफिक्री और लापरवाहियों के चलते आप इस प्रदूषित समाज में रहने के अभ्यस्त भी हो चुके हैं, ऐसे में एक विदेशी नस्ल का डॉगी ही आपको इस कूड़े के ढ़ेर से ऊपर उठा कर मैट्रोपालिटियन कल्चर की हाईप्रोफाइल सोसाइटी में सम्मानित दर्जा दिला सकता है।' अब दूसरे छोर पर बंधे डॉगी की जंजीर पकड़कर आप भवसागर पार कर सकते हैं।
वैसे भी डॉगी आजकल बहुत पहुंच वाले हो गए हैं। इंसान जब से इंसान के लिए समस्या बना है तब से डॉगी समाधान बन गए हैं। डॉगी लोग को खतरा सूंघने की जिम्मेदारी देकर ही तो हम और आप आतंकवाद की तरफ से बेफिक्र हो लिए हैं। नतीजा यह कि इंसान अब इंसान से ज्यादा डॉगी पर भरोसा करता है। खैर साहब, सबक यह लीजिए कि आज से गली के कुत्ते को भी कुत्ता मत कहिए, उसे डॉगी के संबोधन से पुकारिए क्योंकि जिस तेजी से इंसान कुतों को, मेरा मतलब है डॉगीज् को प्रमोट कर रहा है उसे देखकर लगता है कि वह दिन अब दूर नहीं जब कुत्तों के सामने लोकतंत्र की बसंती झमाझम नाचेगी और इंसानों का काम केवल ढ़फली बजाना रह जाएगा।

Thursday, April 12, 2007

सीडी की महिमा अपार रे...


सीडी की महिमा अपार रे...


राजनैतिक पार्टियां जिस उत्साह और उत्तेजना के साथ सीडी के धंधे में हाथ-पैर मार रही हैं उसे देखकर मुझे शाहरुख खान और बिग बी का भविष्य डावांडोल नजर आने लगा है। राजनैतिक पार्टियों से संबंधित सीडियां किसी भी सुपर हिट फिल्म से ज्यादा व्यवसाय कर रही हैं। राजनैतिक सीडियों में मुनाफे के अप्रत्याशित उछाल को देख मुझे तो यह भी डर है कि किसी रोज़ मुंबइया फिल्म निर्माता-निर्देशक फिल्में बनाना छोड़कर राजनैतिक पार्टियों के लिए सीडी न बनाने लग जाएं। आजकल सीडी में सैल्यूलाइड से ज्यादा ग्लैमर है। वैसे भी अपने शाहरुख खान और बिग बी को स्टार बनने के लिए लंबा-चौड़ा संघर्ष करना पड़ा था लेकिन इस मुई सीडी का कॉस्टिंग कॉउचाना अंदाज देखिए कि बंगारू लक्ष्मण और जूदेव से लेकर संजय जोशी तक रोतों-रात स्टार गए थे। सीडी ने राजनीति में न जाने कितने ही लोगों को स्टारडम दिया है। नतीजा यह कि आज प्रकाश जावड़ेकर और वैंकेया नायडू से ज्यादा लोग बंगारू लक्ष्मण, जूदेव, संजय जोशी आदि को जानते और पहचानते हैं। आम आदमी के जीवन में सीडी कि महत्ता केवल सीडी पर फिल्म देखने तक ही सीमित है, वह भी तब जब सीडी पाइरेटेड हो। दूसरी ओर राजनीति में सीडी बहुआयामी होने का दर्जा पा गई है। कह सकते हैं कि सीडी एक फायदे अनेक। सीडी के दांत, खाने के और दिखाने के और। आप सीडी देख और दिखा तो सकते ही है साथ ही सीडी को अचूक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल भी कर सकते हैं। सीडी न हुई ब्रम्हास्त्र हो गई। भूल गए आप, अपने मदनलाल खुराना साहब सीडी के दम पर ही चक्रधारी बन बैठे थे, उन्होने अपनी अंगुली में सीडी को सुर्दशन चक्र की तरह फंसाकर बीजेपी पे दे दनादन हमले किए थे। हालांकि वह बीजेपी का बिगाड़ कुछ नहीं पाए, अलबत्ता अपना पत्ता जरूर कटवा बैठे। आजकल सीडी भूलकर राजनीति की मचान पर चढ़ने की सीढ़ी ढूंढ़ रहे हैं। मुझे याद है पहले चुनाव के टाइम में मतगणना के दौरान पब्लिक को उलझाए रखने के लिए टीवी पर बीच-बीच में फिल्में दिखाई जाती थीं। यह ट्रेंड थोड़ा सा बदल गया लगता है, अब पब्लिक को उलझाने के लिए फिल्मों की जगह सीडियां दिखाई जाती हैं। जैसे उत्तरप्रदेश में चुनाव के दौरान बीजेपी ने दिखवाई है। वह तो सीडी पब्लिक तक पहुंचने से पहले ही उस पर चुनाव आयोग की कैंची चल गई वरना कुछ विलेन टाइप लोग बेवजह हीरो बन बैठते। अभी बीजेपी की सीडी की एबीसीडी भी ढंग से समझ नहीं आई थी कि एक खबरिया चैनल ने पैसा देकर टिकट खरीदते कुछ 'कद्दावर' नेताओं की सीडी उतार ली। अब चुनाव आयोग टेंशन में है। आचार संहिता का उल्लघंन करती पार्टियों से निपटे, चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराए या बैठे कर सीडी पर फिल्में देखे, क्या-क्या करे बेचारा। ऐसे में मेरा एक कीमती सुझाव काम दे सकता है, वह यह कि चुनाव के आसपास राजनैतिक पार्टियों के हैवी सीडी रिलीज को देखते हुए चुनाव आयोग को अपने विभाग में सेंसर बोर्ड की भी एक ईकाई भी गठित कर लेनी चाहिए। वैसे, सीडी के लाभ केवल राजनीति तक ही सीमित न रहें इसलिए इस नाचीज ने सीडी के कुछ और भी नायाब उपयोगों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है, नाचीज को लगता है कि सीडी भारतीय क्रिकेट के उत्थान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। क्रिकेट में सीडी के उपयोग क्रमवार इस प्रकार हैं- 1. सबसे पहले तो टीम इंडिया के हालिया मैचों की सीडी बनाकर क्रिकेट में भविष्य तलाश रहे बच्चों और युवाओं को बार-बार दिखानी चाहिए, जिससे वो अच्छी तरह समझ सकें की खराब क्रिकेट कैसे खेला जाता है और ऐसा खेलने से कैसे बचना चाहिए। इससे एक बार फिर क्रिकेट के अच्छे दिन लौटने की उम्मीद गर्भवती हो सकती है। 2. टीम के नए मैनेजर एवं कोच रवि शास्त्री को उन्ही के मैचों की पुरानी सीडियां दिखाई जाएं जिससे वह अपनी और टीम इंडिया वाली सीडी का तुलनात्मक अध्ययन करके समझ सकें की अब टीम इंडिया के खिलाड़ियों को कौन-कौन सी टिप्स नहीं देनी हैं। 3. इस वर्ल्ड कप के फाइनल वाले दिन उन्नीस सौ तिरासी के वर्ल्ड कप फाइनल की सीडी केबल आपरेटरों को इस अपील के साथ मुफ्त बंटवा दी जाए कि वह राष्ट्रहित में वर्ल्ड कप-2007 का प्रसारण बाधित करके वर्ल्ड कप-1983 की सीडी ही चलाएं। इससे क्रिकेट को लेकर खिलाडियों की मर चुकी आत्मा और क्रिकेट प्रशंसकों की मर चुकी उम्मीदों की आत्मा को थोड़ी शांति मिल सकेगी। अभी क्रिकेट में सीडी की महत्ता के प्रथम अध्याय तौर पर इतने ही सुझावों को अमल में लाकर अप्रत्याशित लाभ लिया जा सकता है। दूसरा अध्याय फिर कभी।
(आज नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)

Wednesday, April 11, 2007

.........हम बंदर ही अच्छे थे!

हम बंदर ही अच्छे थे

प्रिय पाठकों, उपरोक्त शीर्षक पूर्णतः मेरी निजी मान्यता है, हां, यह बात दीगर है कि अंत में मेरे विचारों से आप भी इत्तेफाक रखने लगें। आपकी तरह मैंने भी सुना है इंसान पहले बंदर था और मेरा मानना है कि बेहतर होता कि इंसान आज भी बंदर ही होता। काफी जद्दोजहद और ऊहापोह के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हम बंदर ही अच्छे थे। हम जब तक बंदर थे, लाइफ में कोई टेंशन नहीं थी। बस, बंदर से इंसान बनते ही सारी टेंशन शुरू हो गयी। आजकल आलम यह है कि बंदर, इंसानों की वजह से टेंशन में रहने लगे हैं और इंसान, बंदरों की वजह से। वैसे देखा जाए तो अपने बंदरकाल में स्थितियां और परिस्थितियां हमारे ज्यादा अनुकूल थीं। बंदर होकर जिस रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी की हमने कभी चिंता भी नहीं की, इंसान बनते ही, वही रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली और पानी हमारी मूलभूत समस्या बन गया। सही मायनों में स्वतंत्रता का रसास्वादन भी हमने बंदर रहते ही किया है। इंसान बनने के बाद वाली स्वतंत्रता तो हमारा भ्रम मात्र है। ठीक ऐसा ही हम लोकतंत्र के बारे में भी कह सकते हैं। हम बंदर थे तो कम से कम गुलाटी मारने पर तो हमारा एकाधिकार था, अब यह स्टंट भी राजनीतिज्ञों ने पेटेंट करा लिया है। नेताओं की गुलाटियां देखकर तो आजकल के बंदर भी गुलाटी मारना भूल गए हैं। दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिए कि गुलाटी पर बंदरों का ही एकाधिकार नहीं रहा। इधर, बुरा न बोलने, बुरा न सुनने और बुरा न देखने की परंपरा भी बंदरों से ही शुरू हुई और बंदरों पर ही खत्म भी हो गई। बंदरों से बुरा न बोलने, सुनने और देखने के संस्कार अगर इंसान ग्रहण करता तो कोई बात भी थी, अब बंदर बेचारा क्या बुरा बोलेगा, क्या बुरा सुनेगा और क्या बुरा देखेगा।
जरा सोचिए कि इंसान होकर हमने आखिर पाया ही क्या। जबकि बंदर रहते फायदा ही फायदा था। बंदर रहते हुए एक जो सबसे बड़ा फायदा था वह यह था कि मंहगाई चाहे जितनी बढ़ जाए, अपना एक धेले भर का खर्चा नहीं होता था। जंगल में स्वछंद गुलाटी मारते थे, कभी इस पेड़ पर तो कभी उस पेड़ पर। न नौकरी की चिंता, न रोटी की फिकर। आम तोड़ा आम खा लिया, अमरूद तोड़ा अमरूद खा लिया। केले के पेड़ों पर तो पुश्तैनी कब्जा रहता था अपना। विडंबना देखिए कि जो माल कभी अपना था, अब खरीदकर खाना पड़ता है। कुछ भी खरीरने के लिए पहले कमाना भी पड़ता है। अपनी खून-पसीने की कमाई पर टैक्स देना पड़ता है, सो अलग। टैक्स अदा करने के बाद तो कुछ खास इंसान ही आम खा पाते हैं, आम इंसान तो कुछ भी खाने से पहले बीस बार सोचता है। इस मामले में बंदर आज भी लकी हैं। आम, अमरूद और केले, जो भी मन करता है, ठेले से उठाकर भाग खड़े होते हैं। इंसानों ने बंदरों से भले ही कोई नसीहत न ली हो मगर बंदरों ने इंसान से छीना-छपटी का खेल बखूबी सीख लिया है। मेरा विश्वास है कि जो आज बंदर हैं वो कल निश्चित ही हमारी तरह इंसान बनेंगे।
हम जब बंदर थे तो सबकी एक ही भाषा थी- खी-खी,खी-खी, खों-खों,खों-खों। इंसान बनते ही हमने अपनी-अपनी अलग भाषा बना ली। भाषा भी ऐसी कि एक दूसरे की समझ से परे। बंदर थे तो सब एक बराबर थे न कोई छोटा, न कोई बड़ा, न कोई अमीर, न कोई गरीब, न कोई नेता, न कोई जनता। संसद की जरूरत भी हमें इंसान बनकर ही पड़ी, बंदर रहते हुए तो कभी हमें संसद की कमी महसूस नहीं हुई। हम बंदर होते तो शायद आरक्षण के बारे में सोचते तक नहीं, क्योंकि तब हमें आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होती। सब एक बराबर जो होते।
वैसे इंसान है बहुत चालाक। जिस बंदर से इंसान बना, इंसान बनते ही उसी बंदर को मदारी बनकर अपने इशारों पर नचाने लगा। कुछ होशियार किस्म के मदारी तो संसद तक जा पहुंचे और संसद में बैठकर अपने अलावा सभी को बंदर समझने लगे। यह इंसान मदारी होने का लाभ तो उठाते ही हैं, गुलाटी मार कर बंदर का हिस्सा भी गटक जाते हैं। बिजली विभाग की लापरवाही से लटकते बिजली के तार से उलझकर आज भी जब कोई बंदर अपनी जान गंवाता है तो इंसान पहले उसे चौराहे पर रखकर चंदा वसूलता है और अपनी जेब भरकर, मरे हुए बंदर को कूड़े में फेंककर चल देता है। आपने बंदर के हाथ में उस्त्रा वाली कहावत जरूर सुनी होगी। लेकिन यह कहावत वर्तमान संदर्भों में बंदरों पर प्रासंगिक नहीं रह गई है। इंसान से परेशान बंदरों के हाथ में उस्त्रा अगर आ भी गया तो वो उसे अपनी ही गर्दन पर चलाना बेहतर समझेंगे। अलबत्ता इंसान के हाथों में उस्त्रा इन दिनों कहीं ज्यादा खतरनाक है। अंततः मनुष्य योनि में व्याप्त आपाधापियों और अनिष्ट की आशंकाओं को देखते हुए कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हम बंदर ही अच्छे थे। आपका क्या ख्याल है?

Monday, April 9, 2007

घर बैठे बनिए ज्योतिषी- मुफ्त ज्योतिष गाइड

मुफ्त ज्योतिष गाइड

'टीम इंडिया सबको धोबी पटका देते हुए वर्ल्ड कप लेकर वापस आएगी।', ऐसी भविष्यवाणियां करके भविष्य बांचने का दावा करने वालों ने खूब कमाया। पूरी तो नहीं लेकिन उनकी आधी भविष्यवाणी जरूर सच साबित हुई, नतीजतन टीम इंडिया वापस लौट आई। कुल मिलाकर मैंने देखा है कि मामला चाहे जैसा भी हो, मसलन, टीम इंडिया के भविष्य से लेकर अभिषेक और एश्वर्या के वैवाहिक जीवन के भविष्य तक, भविष्य बांचने वालों की हर हार में पौ-बारह रहती है। इधर मुझे भविष्य बांचने के मामले में चकाचक फ्यूचर नजर आ रहा है।
अगर आप भी रोजगार के लिए पचासियों जगह जूते घिस-घिसकर परेशान हो चुके हैं तो निराश न हों बल्कि यूं समझें कि आपके भाग्य का सितारा बस चमकने ही वाला है। यह बात भी आपके सितारे ही बता रहे हैं। जी हां, सितारे बोलते भी हैं। बस सितारों की भाषा समझने वाला होना चाहिए। तो आपके सितारे कह रहे हैं कि हर तरफ से ठोकर खा चुके आप, हर तरफ से निराश हो चुके लोगों का भविष्य बांचने के धंधे में हाथ क्यों नहीं आजमाते। न हींग लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा आए। तो घर बैठे बन जाइए ज्योतिषाचार्य। आजकल भविष्यवक्ताओं के करियर में उछाल को देखते हुए आपके लिए भी प्रस्तुत है ज्योतिष गाइड वह भी बिलकुल मुफ्त-
सबसे पहले तो अपने दिल से यह डर निकाल दीजिए कि आप, जो अपना वर्तमान तक नहीं जानते वह लोगों का भविष्य क्या बांचेगा। देखिए, लोगों का भविष्य बांचने के लिए यह कतई जरूरी नहीं है कि आपके बाप या दादा कभी इस पेशे में रहे हों, आप डायरेक्ट भी इस धंधे में एंट्री ले सकते हैं। ज्योतिषाचार्य बनने के लिए आपको कहीं से डिग्री या डिप्लोमा लेने की जरूरत भी नहीं है और न ही कहीं से इसकी ट्रेनिंग ही लेनी है। यह तो विशुध्द रूप से बोलवचन देने और बकलोली करने धंधा है जिसे आप घर बैठे आसानी से अपनी गाढी और मोटी कमाई का जरिया बना सकते हैं। घर बैठे दौलत कमाने का पॉलिटिक्स के बाद यह दूसरा धंधा है। बल्कि इस धंधे में अगर आपकी दुकान चल निकली तो आप बडे से बडे पॉलिटिशियन की जेब की हजामत भी बना सकते हैं। उसे एमएलए, एमपी से होते हुए प्रधानमंत्री बनाने के सपने दिखाते-दिखाते, ग्रह-नक्षत्रों के शुध्दिकरण के नाम करवाते रहिए यज्ञ और हवन और लेते रहिए दक्षिणा। सबसे मजे की बात तो यह है कि अपनी गद्दी पर बैठकर आपको कुछ बोलना ही नहीं है, जो कुछ बोलेंगे वह सामने वाले के सितारे बोलेंगे। जो भी मन में आए बस सितारों के कंधे पर बात की बंदूक रखकर दाग दीजिए जातक के सीने में गोली। इस तरह इस व्यवसाय में आप किसी भी आरोप और दोष से भी सर्वथा मुक्त रहते हैं। किसी तरह की कोई हत्या गारंटी से गले नहीं पडती।
बस दो-चार मुख्य बातों का हमेशा ख्याल रखिए। गद्दी पर बैठकर थोड़े-थोड़ अंतराल पर आंखें बंद करके ऊपरवाले से कनेक्शन की सी मुद्रा बनाइए। जब जातक के टेढ़े सवाल का कोई जवाब नहीं सूझ रहा तो कह दीजिए कि अभी ऊपर से कोई जवाब नहीं आ रहा, इस सवाल का उत्तर देने का अभी उपयुक्त योग नहीं है। राहू, केतु, मंगल, शनि, सूर्य और बृहस्पति से खेलिए। इन गृहों का अपने मन मुताबिक एक दूसरे के घर में आवागमन और धुसपैंठ कराते रहिए। किसी को भारी किसी को हल्का बताइए। पंचाग सामने रखकर ध्यान लगाने के बहाने एक झपकी लेकर ग्रहों और नक्षत्रों की चाल पर टिप्पणी मार दीजिए। ऊंच, नीच, ढहीया, साढे साती और महादशा जैसी धुमावदार शब्दावली का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग कीजिए।
आप देखेंगे कि लोगों का भविष्य बांचते-बांचते आपका पीआर सॉलिड होने लगेगा। ऐसे में मौका देखकर किसी अखबार में राशिफल वाला नियमित कॉलम पकड लीजिए, और कहीं अगर किसी टीवी चैनल में आपकी सेटिंग जम गई तो समझिए कि आप पर उच्च का शनि फिदा हो गया है, आपके मंगल ने चंद्रमा से सांठगांठ कर ली है, आपका सूर्य आपके भाग्यघर में अपनी कोठी बना चुका है और राहु-केतु ने आपकी चाकरी करनी शुरू कर दी है। फिर तो लोगों का भविष्य बांचने के अलावा आप बे-रोकटोक खेल, राजनीति और मौसम पर भी अपने हवाई दावे ठोंक सकते हैं। निश्चिंत रहिए और विश्वास रखिए कि आपके द्वारा दी गई मौसम की जानकारी मौसम विभाग की जानकारी से कहीं ज्यादा सटीक होगी।
इतना सब करने के बाद आपको पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखना पडेगा। पीछे मुड़ कर न देखने में ही आपकी भलाई जो होगी। आप देखेंगे की बिलकुल नए धंधे में बगैर तैयारी के साथ उतरने से लूज हुआ आपका कॉन्फीडेंस, जातकों द्वारा की जा रही आपकी चरणवंदना से गेन होता रहेगा। अब आप बेखौफ होकर अपनी ज्यातिष की दुकान चला सकते हैं, और वैसे भी अपने भविष्य को लेकर आपका मुंह ताक रहे जातक की इतनी हिम्मत कहां कि आप जैसे ज्योतिषाचार्य की योग्यता पर ऊंगली उठा दे। जातक अगर इतना ही समझदार होता तो आपके चक्कर में ही क्या पड़ता।
(आज दैनिक भास्कर में प्रकाशित)

Saturday, April 7, 2007

'मुफ़्त'... 'मुफ़्त'... 'मुफ़्त'

मुफ्त जो मिले तो बुरा क्या है...

सुबह-सुबह का वक़्त था। मैं दिल्ली के साउथ एक्स. पार्ट- वन के बस स्टॉप पर खड़ा नौएडा जाने वाली बस के इंतजार में था। बस स्टॉप पर अच्छी-खासी भीड़ थी। तभी एक उन्नीस-बीस साल का लड़का हाथों में एक प्रतिष्ठित दैनिक अंग्रेजी अखबार का बंडल थामे वहां पहुंचा और एक-एक करके वहां खड़े सभी लोगों को अखबार की एक-एक प्रति बांटने लगा। लोग उस लड़के से कुछ पूछे बिना ही वह प्रतियां स्वीकार करने लगे। कुछ लोग जो बस स्टॉप से थोड़ी दूर या फिर आसपास खड़े थे, वह भी अखबार मुफ्त में बंटता देख उस लड़के की ओर लपके। इन लोगों में वह लोग भी शामिल थे जो वहां स्थित विभिन्न व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में सेल्समैन और हैल्पर के रूप में कार्यरत रहे होंगे और अपने मालिक द्वारा शोरूम और दुकानें खोले जाने का इंतजार कर रहे थे। पहले लोगों ने समझा कि शायद अखबार का मुफ्त वितरण कंपनी की ही कोई पॉलिसी होगी, फिर सोचा की शायद वह विज्ञापनदाता अखबार मुफ्त बंटवा रहा होगा जिसके विज्ञापन का स्टीकर अखबार के मुख्य पृष्ठ पर चिपका है। लेकिन यह क्या? लोग उस वक़्त सन्न रह गए जब वह लड़का सारे अखबार बांटकर सबसे अखबार के पैसे मांगने लगा। दो रुपए का अखबार मुफ्त समझ कर लपक चुके लोगों के चेहरे शर्मिंदगी की लालिमा के साथ झुंझुला उठे। कुछ ने, 'नहीं चाहिए भाई।', कह कर अखबार वापस कर दिया और कुछ ने 'मुफ्त' की मानसिकता का प्रदर्शन करने से बचने के लिए अनमने मन से पैसे दे दिए। पैसे तो खैर मैंने भी दिए लेकिन साथ ही उससे इस तरह जबरदस्ती अखबार बेचने का कारण भी पूछा।

अपना नाम उसने पूरन बताया। उसने मुझे बताया कि वह इंटर पास है और नौकरी की तलाश में गोरखपुर के पास किसी गांव से आया है। दिल्ली आकर उसने नौकरी के लिए बहुत धक्के खाए लेकिन सिफारिश और गवाही के अभाव में उसे कहीं काम नहीं मिला। हार कर उसने फुटपाथ पर अखबार बेचने का काम शुरू किया लेकिन वहां भी उसे पुलिसवाले और आसपास रेहड़ी लगाने वाले परेशान करते रहे। पुलिसवाले रोज चार-पांच अखबार बतौर रिश्वत उससे ले जाते और आसपास पानी, जूस और चाट-पकौड़ी की रेहड़ी लगाने वाले उसे अपनी जगह पर बैठा बता कर खदेड़ दिया करते। अंततः पेट पालने की मजबूरी ने उसके दिमाग में तरकीब का रूप ले लिया। वह भीड़भाड़ वाली जगहों पर ऐसे ही अखबार बेचने लगा जैसे उसने कुछ देर पहले इस बस स्टॉप पर बेचे थे। उसने लोगों की प्रवृतियों का गहन अध्ययन किया। मुफ्त चीजों के प्रति लोगों के आकर्षण पर उसका शोध देखकर मैं भी हैरत में था। लोगों की मानसिकता, मुफ्त जो मिले तो बुरा क्या है को वह भलिभांति समझ चुका था। लोगों में मुफ्त के प्रति इसी मानसिकता के पीछे छिपी लालसा और लालच को शर्मिंदा करके पैसे कमाना ही उसका व्यवसाय था। उसकी मार्केटिंग स्किलस् ने मुझे अचंभित कर दिया।

मुझे उसकी सेल्समैनशिप में कोई खामी नजर नहीं आई। लोगों की कमजोरी का फायदा उठा कर अपना माल बेचना उसकी योग्यता थी, चालाकी नहीं। दरअसल 'मुफ्त' के तिलिस्म ने लोगों को इस स्तर तक सम्मोहित कर लिया है कि उन्हे खुद को ठगे जाने का अहसास तक नहीं होता। आजकल छोटी-बड़ी तमाम कंपनियां यही तो कर रही हैं। अपने उत्पाद पर दस रुपए बढ़ाकर पांच रुपए की चम्मच, कटोरी, गिलास, शैम्पू के पॉउच, साबुन की टिक्की और बिस्कुट के पैकट मुफ्त देकर उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाया जा रहा है। घर के दरवाजे से लेकर टीवी के पर्दे तक मुफ्त सामान का लालच देकर ऊट-पटांग और बेकार उत्पाद बेचने वाली कंपनियों की भीड़ है। पूरन तो दो रुपए मूल्य का अखबार दो ही रुपए में बेच रहा था। हां, उसका तरीका थोड़ा समझ से परे जरूर हो सकता है लेकिन इसमें उसकी भी क्या गलती, बाजार के विस्तार के साथ अपना माल बेचने के लिए रोज नए फंडे तलाश करना सबकी मजबूरी है, फिर चाहे वह अखबार हो या मोबाइल, टीवी और फ्रिज। लोगों में 'मुफ्त' का संक्रमण किसी बीमारी की तरह फैल रहा है। मैंने तो कई लोगों को किसी उत्पाद पर स्कीम में मुफ्त मिल रहे पांच या दस रुपए के आइटम के दुकान पर ही छूट जाने के बाद उसे बीस रुपए का पैट्रोल खर्च करके लाते देखा है। किसी उत्पाद के साथ स्कीम में मिल रहा मुफ्त आइटम उपभोक्ता का हक है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन धीरे-धीरे लोगों की आदत में शुमार होती जा रही 'मुफ्त' की प्रवृति का लाभ पूरन जैसे लोगों से लेकर छोटी-बड़ी कंपनियां भी अपने-अपने तरीके से उठा रही हैं।

इस कहानी की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना यही है कि पूरन जैसे दिमाग जो देश और समाज के हित कार्यों में लगाए जा सकते हैं, वो फिलहाल सिर्फ अपना हित साधने में लगे हैं। उन्हे देश और समाज के लिए सोचने का अवसर देना तो दूर कोई एक अदद नौकरी तक नहीं देता। क्या आपमें से है किसी के पास पूरन के लिए एक अदद नौकरी....???????

Wednesday, April 4, 2007

.......क्योंकि खुजली सिर्फ पीठ में ही नहीं होती...

क्योंकि खुजली सिर्फ पीठ में ही नहीं होती...

बात अगर एक दूसरे की पीठ खुजाने तक ही सीमित रहती तो शायद ठीक भी था लेकिन खुजली की अपरंपार महिमा का क्या कहें, ससुरी बहुत ज्यादा देर तक पीठ पर लदी नहीं रहती। (आप लोगों को लग रहा होगा कि मैंने अपना बात बीच से शुरू क्यों कि तो साहेबान-कद्रदान इसे आप मेरी खुजली का नाम दे सकते हैं। वैसे भी खुजली का प्रसंग सुश्री नोटपैट द्वारा छेड़ा जा चुका है, यह नाचीज़ तो उसी चर्चा को थोड़ा सा विस्तार दे रहा है) तो हाज़रीनों, अनादि काल से खुजली का एक संग्रहणीय इतिहास रहा है। खुजली का चमकीला वर्तमान लार टपका रहा है और खुजली का सुनहरा और टॉपलैस भविष्य हमें अपनी आगोश में भरने के लिए बाहें पसारे खड़ा है। तो प्यारे ब्लॉगियों, इत्ता तो गारंटी से पक्का समझिए कि खुजली का क्षेत्रफल असीमित है।
खुजली, शारीरिक खुजली और मानसिक खुजली के बिन्दुओं से विस्तार पा जाती है। शारीरिक खुजली का दायरा ज़रा संकुचित है। मसलन, शारिरिक खुजली सिर से लेकर पैर तक कहीं भी हो सकती है। बकलम नोटपैट पीठ में विशेषकर। वहीं मानसिक खुजली खुले आसमान की तरह अनंत है। इसके अंतर्गत आने वाली विभिन्न खुजलियों में, साहित्यिक खुजली, सामाजिक खुजली, राजनैतिक खुजली वगैरह-वगैरह आती हैं। खुजली को समझने से पहले यह भी जरूरी है कि खुजली की प्रवृति को समझ लिया जाए। दरअसल खुजली के मूल में आनंद छिपा है। खुजली का प्रकार चाहें जो भी हो वह आनंद ही देती है। आप खुजली को अवाइड कर ही नहीं सकते। निम्नस्तरीय से लेकर उच्चस्तरीय खुजली, बिना खुजाए शांत नहीं होती।
बसअड्डे के पास सड़क पर तांगे में लाउडस्पीकर लगाकर खुजली की दवा बेचने वाला बता रहा है कि लोग आजकल खुजली की दवा खरीदते ही नहीं। उन्हे खुजाने में ज्यादा मजा आने लगा है। तांगे पर टगें लाउडस्पीकर में लगातार रेकॉर्ड बज रहा है- 'दाद, खाज, खुजली की अचूक दवा... खुजाते रहते हैं... खुजाते-खुजाते परेशान हो जाते हैं... खुजाते-खुजाते जख्म बना लेते हैं... खून निकाल लेते हैं... एक हाथ कान में, दूसरा पुरानी दुकान में... बाप बेटे की खुजाता है, बेटा बाप की खुजाता है... पुरानी से पुरानी खुजली को जड़ से खत्म करता है अलताफिया लोशन... फ्री खुराक के लिए टांगे के पास आएं।', बेचारा दवाई वाला क्या जाने की आजकल लोगों को खुजली के खात्मे की नहीं बल्कि खुजली बढ़ाने और फैलाने की दवा चाहिए। मैं तेरी पीठ खुजाउं तू मेरी पीठ खुजा का कांसेप्ट सांस्कृतिक आयोजन का रूप लेता जा रहा है। एक-दो रोज़ पहले अपने कमल भाई ने खुजली के संक्रमण से पीड़ित कुछ लौंडे-लौंडियों की तस्वीरें भी तो दिखाई थीं। शीर्षक देखकर फोटो निहारने की खुजली फिर किसमें नहीं हुई। कुछ चुपचाप देखकर वापस हो लिए कुछ ने टिप्पणी करने कमल भाई की खुजली को थोड़ा आराम देने का प्रयास किया।
यह खुजली के विस्तारवाद का युग है। अब यहां खुजली सिर्फ पीठ तक ही सीमित नहीं है। कहीं धूप कहीं छाया है, सब खुजली की ही तो माया है। यहां लाउडस्पीकर पर बज रहा रेकार्ड बदलकर कुछ यूं होना चाहिए- 'दाद, खाज, खुजली की अचूक दवा... खुजाने और खुजवाने की फिराक में रहते हैं लेकिन न खुजा पाते हैं, और न खुजवा पाते हैं... खुजाते-खुजवाते परेशान हो जाना चाहते हैं... खुजाते-खुजवाते जख्म बना लेना चाहते हैं... खून निकाल लेना चाहते हैं... चाहते हैं कि एक हाथ हो कान में, दूसरा पुरानी दुकान में... बाप बेटे की खुजाए, बेटा बाप की खुजाए... और शर्म न आए... पुरानी से पुरानी खुजली का मज़ा देता है अलताफिया लोशन... फ्री खुराक के लिए टांगे के पास आएं और कहीं भी बस ज़रा सा लगाते ही भरपूर खुजाएं।'
ईमान से बताइए, क्या खुजली के मूल में आनंद का वास नहीं है? है ना... फिर नाराज़ क्या हो रहे हैं।

Tuesday, April 3, 2007

द्विअर्थी संवाद+अश्लील चुटकुले+फूहड़ प्रस्तुतिकरण=हास्य

द्विअर्थी संवाद+अश्लील चुटकुले+फूहड़ प्रस्तुतिकरण=हास्य
भागती-दौड़ती दिनचर्या और आपाधापी भरे जीवन से मिले फुर्सत के दो पलों में इंसान के लिए हास्य अचूक औषधि की तरह काम करता है। व्यस्तता की थकान से निजात पाए व्यक्ति के लिए हास्य की महत्ता को भुनाने की आजकल भरपूर कोशिश की जा रही है। विभिन्न टीवी चैनलों पर प्रसारित हो रहे तमाम हास्य कार्यक्रम इसका प्रमाण है। सास-बहू के कभी न खत्म होने वाले षड़यंत्रकारी ड्रामे और घर-घर की अजीबो-गरीब कहानियों के तिलिस्म को तोड़ने के प्रयोग में इन हास्य कार्यक्रमों को सफल माना जा सकता है किन्तु यह हास्य कार्यक्रम भी पूरी तरह स्वस्थ्य हास्य के मानकों से छेड़छाड़ करते ही नजर आ रहे हैं। इन कार्यक्रमों के सम्मानित मंच दूषित हास्य प्रस्तुतियों से लगातार प्रदूषित हो रहे हैं। दूषित हास्य की पराकाष्ठा स्वस्थ्य हास्य की संभावनाओं का खात्मा करने पर उतारू है और ऐसे में स्वस्थ्य हास्य की परिभाषा से इन कार्यक्रमों के आयोजकों ध्यान भी हटता जा रहा है।
कहा जा सकता है कि फूहड़ता और अश्लीलता परोस कर हास्य का हजामा बिगाड़ने की रणनीति व्यवसायिकता के समीकरणों का परिणाम हो, लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसे कार्यक्रम हास्य के नाम पर फूहड़ता बेचकर खुद को हंसी के सौदागर और हास्य प्रस्तुतियों के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन कर रहे कलाकार को हंसी का बादशाह भला कैसे घोषित कर सकते हैं? मात्र चुटकुलों के हास्यास्पद प्रस्तुतिकरण को आधार बनाकर कोई हास्य कलाकार होने की उपाधि से कैसे और क्यों विभूषित कर दिया जाता है, यह किसी की भी समझ से परे हो सकता है। द्विअर्थी संवादों पर लग रहे ठहाकों और बज रही तालियों के शोर में इस तरह के कई सवाल दब रहे हैं। झूठी प्रशंसा के दबदबे में यह सवाल बड़ा आकार भी ले रहे हैं। जबकि हास्य का यह बिगड़ता स्वरूप समाज के लिए उतना ही घातक है जितना समाज में फैल रही अश्लीलता के लिए उत्तरदायी अन्य कारक। टीआरपी रेटिंग बटोर रहे इन तथातथित हास्य कार्यक्रमों पर अभी तक कहीं से कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई है। नतीजा यह कि टीवी पर कौन सा मंच हास्य कवि सम्मेलन का है और कौन सा हास्य कार्यक्रम का, यह असमंजस बढ़ता ही जा रहा है। विशुद्ध हास्य से भटके हुए इन कार्यक्रमों का उद्देश्य और औचित्य भी आशंकाओं के घेरे में है। एक ओर हास्य कार्यक्रम के नाम पर लॉफ्टर की आड़ में द्विअर्थी संवादों का प्रचलन बढ़ा है और दूसरी ओर हास्य कवि सम्मेलन के कार्यक्रम के नाम पर संचालक हास्य पैदा करने के लिए साहित्यिक भाषाशैली की व्याकरण को भुलाकर मंच पर मदिरा की बोतल पकड़े, मौन रहकर मुस्कुराती खूबसूरत बाला के साथ हर बात पर 'वाह-वाह' कर रहा है। हास्य कवि सम्मेलन कहकर दिखाए जा रहे ऐसे टीवी कार्यक्रमों में देश के सुविख्यात हास्य कवियों की उपस्थिति हास्य के भविष्य की चिंता का बेहद निराशाजनक पहलू है।
स्वस्थ्य हास्य की परंपरा को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से शुरू किए गए टीवी के हास्य कवि सम्मेलन की गरिमा सभवतः अंतिम बार मूर्धन्य कवि अशोक चक्रधर ने बचाई है। उसके बाद टीवी का हास्य कवि सम्मेलन कब अपने मूल से खिसक गया ज्ञात नहीं। जो सच में हास्य कवि थे वह हाशिए पर चले गए और चुटकुलों को लेकर तुकबंदी करने वाले हास्य कवि प्रतियोगिताएं जीतने लगे। ऐसी प्रतियोगिताओं में स्थापित हास्य कवियों की मजबूरी देखिए कि वह शायद नाम गुम जाएगा की आशंका के चलते इन प्रतियोगिता में जज तो बन बैठते हैं लेकिन फैसला आयोजक और प्रयोजकों के हाथ में ही सुरक्षित रहता है। ऐसे ही टीवी के हास्य कार्यक्रमों में ऑफिस-ऑफिस आज तक विशुद्ध हास्य परोस रहा है, वह भी समाज और देश में व्याप्त कुव्यवस्थाओं पर तीखे व्यंग्य प्रहारों के साथ। अफसोस की बात तो यह है कि कामेडी के नाम पर फूहड़ता का कारोबार कर रहे कथित हास्य कार्यक्रमों के निर्माता ऑफिस-ऑफिस की लाइन और लोकप्रियता से तनिक भी प्रभावित नहीं लगते। इनके लिए द्विअर्थी संवाद, अश्लील चुटकुले और फूहड़ प्रस्तुतिकरण ही हास्य की परिभाषा है। अब टीवी शो से पैदा तमाम विकल्पों ने हास्य कवियों में मूल पर लौटने की संभावनाओं और उनकी कविता में सुधार की गुंजाइश की जरूरत को ही खत्म कर दिया है। जो हास्य कवि अपने शहर में कवि सम्मेलन के मंच पर श्रोताओं द्वारा हूट कर दिया जाता है वह अपनी किस्मत लॉफ्टर शो में आजमाने चला आता है। हास्य कार्यक्रमों के प्रथम में नहीं तो द्वितीय में और द्वितीय में नहीं तो तृतीय आवृति में ही सही मौका सबको मिलता है। ऐसे कार्यक्रमों ने जाने कितने ही असफल हास्य कवियों को एक सफल हास्य कलाकार बना दिया है। बचे हास्य कलाकार तो वो ऊट-पटांग चुटकुलों के सहारे अपनी दुकान चला रहे हैं। ऐसे कलाकारों के लिए राहत की बात यह है कि कार्यक्रम के आयोजक उनका माल तगड़े मुनाफे में बेच रहे हैं और वह भी हास्य का लेबल लगा कर। विडंबना यह कि कॉमेडी के गिरते स्तर को बचाने के लिए कॉमेडी आइटमों में जॉनी लीवर और राजू श्रीवास्तव की रचनात्मकता भी बेबस नजर आती है। सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार को खोज रहे टीवी के प्रतियोगी कार्यक्रमों में अपनी लाजवाब फूहड़ता के प्रस्तुतिकरण से निर्णायक मंडल को लोटपोट कर देने वाले के सिर विजेता का ताज होता है और मौलिक हास्य का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले जनता के पसंदीदा कलाकार को पुरुस्कार में मिली संत्वना से ही काम चलाना पड़ता है। ऐसी प्रतियोगिताओं के फैसले जनता को भी अचंभित कर रहे हैं, जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि यह कार्यक्रम जनता के लिए नहीं बल्कि विज्ञापनों के लिए बन रहे हैं।
सोचने वाली बात यह भी है कि हास्य पैदा करने के लिए किए जा रहे इन जबरन प्रयोगों को जब सपरिवार ही नहीं देखा जा सकता तो फिर आखिर यह प्रयास समाज के किस वर्ग को हंसाने के लिए किया जा रहा है। वह हास्य कहां गया जो लोगों को हंसाने के साथ स्वस्थ्य मनोरंजन भी देता था। या फिर यह अनुमान सटीक है कि टेलैंट हंट प्रतियोगिता की होड़ में लॉफ्टर और कॉमेडी के कलाकारों की खोज ने अपने उद्देश्यों से भटक कर हास्य को भी लापता कर दिया। कारण चाहे जो भी हो लेकिन हास्य के साथ एक भद्दा मजाक तो हुआ है। हास्य की लीपापोती के इस ग्लैमर शो में हास्य का मूल स्वरूप क्षत-विक्षत हुआ है। हास्य रस को हाई-प्रोफाइल बनाने के चक्कर में उसे विषैला किया जा रहा है और सब खामोश हैं, वह भी जो विशुद्ध हास्य कवि अथवा कलाकार के रूप में सुविख्यात हैं और वह भी जो लॉफ्टर क्लब चलाते हैं। या फिर शायद यह समझ लिया गया होगा कि लोगों का हंसना जरूरी है, लोग कैसे हंस रहे हैं इससे क्या फर्क पड़ता है। अगर ऐसा है तो अपनी हास्य रचनाओं से हास्य को गरिमा और गौरव के पायदान तक लाने वाले प्रतिनिधि हास्य की मौजूदा बदहाली से मुंह भला कैसे मोड़ सकते हैं। जिनके प्रयासों से लोगों ने हास्य के महत्व को जाना है, समझा है वह खुद अपने संघर्ष को बेनतीजा होते भला कैसे देख सकते हैं। क्या लॉफ्टर, कॉमेडी और वाह-वाह के नाम से अपमानित होते हास्य को उसकी मूल परिभाषा पर वापस लाने की पहल कभी हो सकेगी? या फिर मसखरी ही हास्य की नई परिभाषा मान ली जाएगी।


('दैनिक जागरण' में प्रकाशित)

Sunday, April 1, 2007

सेक्स और सेंसेक्स की भूख

सेक्स और सेंसेक्स की भूख
-अनुराग मुस्कान

यह प्यास है बड़ी। दरअसल यह स्लोगन अधूरा है। सीमित है। संकुचित है। इसमें प्यास तो है, भूख नहीं है। प्यास के साथ अगर इसमें भूख भी होती तो यह असीमित हो जाता, व्यापक हो जाता। हमारे देश में प्यास से कहीं ज्यादा भूख बड़ी है। हमें कभी भी, कहीं भी भूख लग जाती है। मैंने सड़क पर चाट-पकोड़ी की रेहड़ी से लेकर पंचसितारा होटल तक भूखों की कभी न खत्म होने वाली कतारें देखी है। यह देख मेरा विश्वास और दृढ़ हुआ है कि यह भूख है बड़ी। भूख केवल पेट की ही नहीं होती, शरीर की भी होती है, मन की भी होती है, दिमाग की भी होती है, आंखों की भी होती है और जेब की भी होती है। हर भूख बड़ी है। बड़ी के साथ, यह भूख बढ़ी भी है। लगातार बढ़ी है। आजकल तो सेक्स से लेकर सेंसेक्स तक, भूख ही सुर्खियों में है। कोई सेक्स की भूख से त्रस्त है तो कोई सेंसेक्स की और कोई दोनों ही की। सबकी अपनी-अपनी भूख है। भूख शांत करने की मंशा से सभी कतारबद्ध हैं। सवा करोड़ की भीड़ है। भीड़ भी भूख के साथ लगातार बढ़ती ही जाती है। आज सवा करोड़ है, कल डेढ़ करोड़ होगी और परसों दो करोड़। अभी आधे ठीक से तृप्त भी नहीं हो पाते कि पहले वाले को फिर से भूख सताने लगती है। यह क्रम अनवरत जारी है। सेक्स से लेकर सेंसेक्स तक भूख वर्गीकृत है। सेक्स और सेंसेक्स से जुड़ी हर खबर ब्रेकिंग हैं, एक्सक्लूसिव है। सेक्स और सेंसेक्स की भूख के मामले में छोटे निवेशक एक विश्वसनीय साथी और एक विश्वस्नीय शेयर के साथ संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन बड़े निवेशक, दोनों ही मामलों में रैकट चला कर भी असंतुष्ट हैं। छोटे निवेशक दोनों ही मामलों में घाटा उठाते हैं और बड़े निवेशक मुनाफा कमाते हैं।
भूख के दौर होते हैं, और दौरे भी। अब वह दिन दूर नहीं जब फास्ट फूड और लाटरी की तरह सेक्स और सेंसेक्स की भी रेहड़ी लगा करेगी। रेहड़ी से लेकर फाइव स्टार होटल तक सेक्स और सेंसेक्स की हर स्वादिष्ट वैरीयटी उपलब्ध होगीं। रेहड़ी पर बोर्ड लगा होगा- दिल्ली और मुंबई की मशहूर, ताजातरीन सेक्स और तेजी से बढ़ते सेंसेक्स का सबसे पुराना ठिकाना, बड़े-बड़े अभिनेताओं से लेकर बड़े-बड़े नेताओं तक की पहली पसंद, ग्राहक की सेवा ही हमारा मकसद, संतुष्टि गारंटीड, एक बार सेवा का मौका अवश्य दें। इसी प्रकार फाइव स्टार होटलों में सेक्स और सेंसेक्स के हैप्पी ऑवर्स हुआ करेंगे। मुझे तो सेक्स और सेंसेक्स के व्यवसायियों का फ्यूचर चकाचक नजर आ रहा है। भूख बढ़ेगी तो मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी तो बाजार भी फैलेगा। इस संबंध में दुकानों के आवंटन को लेकर भी मारामारी मचेगी। जैसे शराब के ठेकों को लेकर मचती है। यहां भी प्राइम लोकेशन की दुकानें सफेदपोशों के भईयों, भतीजों और भांजों को भी मिलेगीं। छोटी रसूख वाले रेहड़ी और दुकान लगाएंगे और रैकट चलाने वाले बड़े रसूखधारी बड़े-बड़े मॉल में अपने कारोबार को विस्तार देंगे। भूख पर बाजार टिका है, और टिका रहेगा। जितनी बड़ी भूख उतना ही बड़ा बाजार। मुझे सेक्स और सेंसेक्स के धंधे में संभावनाओं का सुनामी दिखाई दे रहा है। ऐसे में पुलिस-प्रशासन से भी क्या डरना। पुलिसवाले तो चाऊमीन और मोमोज की रेहड़ियों को भी डंडा दिखाते हैं और बाद में एक प्लेट चाऊमीन और बीस रुपए में मान जाते है।

( 13-09-2006 को 'हिन्दुस्तान' में प्रकाशित)

Friday, March 30, 2007

प्रिय चिट्ठेकारों,रुको..,पढ़ो..,सोचो..या फिर निकल जाओ..

'प्रिय चिट्ठेकार,
आपने इस आलेख पर रुकने का निवेदन स्वीकार किया, धन्यवाद! इस आलेख को पढ़कर आपका समय नष्ट नहीं होगा, ऐसा मेरा विश्वास है... विश्वास तो यह भी है कि इस आलेख में सोची गई बातों को हम सब को सोचना होगा... सिर्फ सोचना ही नहीं होगा बल्कि अभी से इस पर काम भी करना होगा... कृपया मेरे विश्वास की लाज रखिए.....'

जूठन का मोल
-अनुराग मुस्कान


कहते हैं कि अगर पापी पेट न होता तो कोई समस्या ही न होती। पेट की खातिर दो वक्त की रोटी जुटाने की मशक्कत में इंसान थक जाने के बावजूद भी दौड़ रहा है। रोटी के लिए जारी यह मैराथन जिंदगी से पहले खत्म होने वाली भी नहीं है। इस मैराथन में कोई सबसे आगे है तो कोई सबसे पीछे। पेट की भूख तो सबकी समान है, किन्तु पेट की क्षुधा शांत करने के विकल्प सर्वथा असमान। किसी का पेट जरूरत से ज्यादा बाहर है, तो किसी का बिलकुल पिचका हुआ। किसी को भूख न लगने की बीमारी है, तो किसी को भूख ज्यादा लगने की। कोई लाखों कमा रहा है, तो कोई हाथ पसारे खड़ा है। मेरी समझ से यह असमानता भी इंसान की ही बनाई हुई है।
दिल्ली के सरोजिनी नगर मार्किट में एक वृद्ध भिखारिन ने मुझसे एक रुपए की भीख मांगी। मैंने जब उससे यह पूछा कि वह एक रुपए का क्या करेगी तो उसने बताया कि वह इससे खाना खरीदकर खाएगी। मैंने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा कि, 'एक रुपए में खाना भला कहां मिलता है?', तो उसने बताया कि सड़क के किनारे जो खाने की रेहड़ी लगाते हैं, वो एक रुपए में जूठन बेच देते हैं। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मैंने उस वृद्ध भिखारिन को जूठन न खाकर, ताजा भोजन करने की हिदायत के साथ दस रुपए देकर विदा किया। लेकिन सवाल यह उठता है कि वह ताजा भोजन आखिर कब तक खा सकती है? उसे देर-सबेर, मजबूर होकर जूठन खानी ही पड़ेगी। इस तस्वीर का एक दुःखद पहलु यह भी है कि मैंने बड़े-बड़े होटलों और रेस्टोरेंटों में अक्सर देखा है कि लोग ढ़ेर सारा भोजन थाली में छोड़ कर ही उठ जाते हैं। बाद में उनकी वह जूठन कूड़ेदन में फेंक दी जाती है। या फिर संभव है कि बेच भी दी जाती हो। बहरहाल मैंने अक्सर बड़े बाजारों और मॉलस् के आसपास लोगों की दुत्कारें खाते अनाथ और गरीब बच्चों को कूड़ेदान से आईसक्रीम की गीली स्टिक और यूज-एन-थ्रो प्लेटें उठाकर चाटते देखा है।
कुछ ही दिन पहले, मैकडोनॉल्ड से प्राप्त एक टोमॉटो सॉस का बचा हुआ पॉउच जब मैंने ऐसे ही एक बच्चे को दिया तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उसने वह अदना सा पॉउच भी अपने तीन भाई-बहनों के साथ मिल-बांट कर खाया। अभावग्रस्त उनके चेहरों पर खुशी का पारावार देखकर मुझे इस बात का अहसास हुआ कि हमें अपनी भूख के मुताबिक अपने खाने की प्लेट को भी सीमित करना चाहिए। हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि थाली में भोजन छोड़ना ईश्वर का अपमान होता है। वह, भोजन ग्रहण करने से पहले और भोजन ग्रहण करने के पश्चात नियमित रूप से परोसी गई थाली को प्रणाम किया करते थे। ईश्वर को, भोजन प्रदान करने के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद ज्ञापित करते थे। लेकिन दुर्भाग्य यह कि अत्याधुनिकीकरण के चलते, तेज रफ्तार जीवनशैली ने हमारे पास इतना समय ही शेष नहीं छोड़ा कि हम अपने बुजुर्गों के आदर्शों का अनुसरण कर सकें। यह दुर्भाग्य हमारे द्वारा ही पोषित है, यह हमारा नितांत निजी दुर्भाग्य है क्योंकि अपनी वर्तमान जीवनशैली के लिए हम स्वंय उत्तरदायी हैं। हालांकि कुछ लोग अन्न की स्तुति की इस परंपरा को आज भी जीवित रखे हुए हैं, किन्तु यह आंधी-तूफान में किसी दीपक की लौ को जैसे-तैसे जिवाए रखने जैसा है।
अपने अविवाहित जीवन खंड में नौकरी की खातिर, मैं और मेरे दो मित्र अपने-अपने घरों से दूर यहां दिल्ली में एक कमरा लेकर रहा करते थे। शाम को दफ्तर से थके-मांदे लौटने के बाद अक्सर ही हम पास के एक रेस्टोरेंट से खाना मंगाया करते थे। रोज ही ढेर सारा खाना बच जाया करता था जिसे हम कूड़ेदान के हवाले कर दिया करते थे। फिर एक दिन हमारे कमरे का झाड़ू-पोछा करने वाली बाई ने हमसे निवेदन किया की हम बचा हुआ भोजन फेंकने की बजाए उसे दे दिया करें, उसे, अपने घर के रास्ते में पड़ने वाले मंदिर पर बहुतेरे भिक्षु मिलते हैं, वह यह भोजन उन्हे दे दिया करेगी। कूड़ेदान में भोजन के अनादर से तो यह कहीं बेहतर था। उस रोज अपनी व्यस्त दिनचर्या पर हमें बहुत शर्मिंदगी हुई। मालूम हुआ कि मैट्रोपोलेटियन शहरों ने रोजगार के बहाने इंसान को एक मशीन बना कर रख दिया है। भोजन के अनादर की बात को कभी हम अपनी व्यस्तता से ऊपर उठकर सोच ही नहीं सके थे। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। उसके पश्चात हम अपनी-अपनी भूख के मुताबिक भोजन मंगाने लगे। लेकिन अपने अड़ोस-पड़ोस में भोजन का यह अनादर मैं आज भी अक्सर देखता रहता हूं।
प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से घर और बाहर, हमारे माध्यम से होने वाले भोजन के अनादर के प्रति हमें सजग हो जाना चाहिए। घर में ज्यादा मात्रा में पका खाना जब बच जाता है तो किसी अन्य विकल्प को तलाशने के झंझट से बचने के लिए उसे फेंक दिया जाता है। ऐसा ही बाहर यानि होटल और रेस्टोरेंट में होता है, कि सौ रुपए की प्लेट में से साठ रुपए का खाकर चालीस रुपए का खाना छोड़ दिया जाता है। जूठन का यह प्रतिशत ऊपर नीचे हो सकता है, लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि क्या यही चालीस, तीस, बीस और दस रुपए जोड़ कर जरूरतमंद, अनाथ, बेसहारा और गरीब लोगों और बच्चों के लिए किसी रोजगारपरक योजना की नीव नहीं रखी जा सकती। या फिर क्या हम यह रुपये जोड़ कर इस दिशा में कार्यरत किसी संस्था को नहीं दे सकते। और यदि हम कोई कार्य निस्वार्थ भाव से नहीं भी करना चाहते, तब भी संभवतः उस डोनेशन की पावती से हमें इन्कम टैक्स में छूट तो मिल ही सकेगी। विचारणीय है कि थालियों में बची जूठन परोक्ष रूप से समाज के एक उपेक्षित वर्ग की भूख बढ़ा रही है, जिससे उनमें समाज के प्रति विद्रोह का संक्रमण फैल रहा है। यदि यह जूठन थालियों में बचना बंद हो जाए तो शायद इस उपेक्षित वर्ग के उत्थान की एक पहल को सकारात्मक सोच की दिशा मिल सके। अन्यथा भविष्य में हमें खाने के साथ अपनी ही जूठन का मोल, अतिरिक्त एवं भारी मूल्य देकर चुकाना पड़ेगा।

(7-03-2007 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित)

Thursday, March 29, 2007

अनुराग मुस्कान: शायद! मां का कोई दोष नहीं...

शायद! मां का कोई दोष नहीं...
-अनुराग मुस्कान

एक आम धारणा है कि अच्छा पैसा कमाना है तो दिल्ली, मुम्बई अथवा इन जैसे बड़े शहरों का रुख करना चाहिए, क्योंकि यहां रोजगार के तमाम विकल्प मौजूद हैं। यही धारणा आज से दस साल पहले मुझे भी दिल्ली ले आई। तब से आज तक मैं दिल्ली की भीड़ में गुम हूं। नौकरी करता हूं और तनख्वाह पाता हूं। कुल मिलाकर इस शहर ने मुझे भी अपनी तरह व्यवसायिक और मशीनी बना दिया है। अपने छोटे शहर आगरा के मुकाबले जिंदगी बिलकुल बदल गई है। अब इस बदलाव को मैंने अनमने मन से ही सही स्वीकार भी कर लिया है। लेकिन मेरी मां इस शहर से और इसके रहन-सहन से घबराई हुई है। मां, पिता के स्वर्गवास के बाद उन्ही के स्थान पर आगरा में सेना की एक शाखा में सिविलियन क्लर्क की हैसियत से कार्यरत थीं। साथ रहने की मेरी जिद के हाथों मजबूर होकर मां ने साल भर पहले अपना तबादला दिल्ली करा लिया। अब वह सेना भवन में कार्यरत हैं। अब सुबह जागने से लेकर रात को सोने तक उनकी जिंदगी में सब कुछ तय हो गया है। नौएडा स्थित घर से बस स्टॉप तक वही सड़कें, वही चार्टेड बस, कृषि भवन से सेना भवन तक तेज चाल से रोज की वही भागमभाग। एक शहर में बाइस सालों की जमी-जमायी अपनी जीवनशैली को छोड़कर अपने रिटायर्मेंट से मात्र आठ साल पहले, हाई ब्लड-प्रेशर की समस्या के साथ दिल्ली में खुद को स्थापित करने का उनका फैसला सच में हिम्मत का ही काम था।
वैसे तो उनके दफ्तर की कार्यावधि सुबह साढ़े नौ से शाम साढ़े पांच तक है किन्तु प्रातः सात बजे ही उन्हे घर से निकलना पड़ता है और शाम आठ बजे जब दिल्ली के व्यस्त ट्रैफिक से लड़ती-झगड़ती खचाखच भरी बस का सफर करके वह बदहवास हालत में लौटती हैं तो एक पल को मुझे यह अहसास होता है जैसे किसी गांव में स्वछंद विचरण करने वाली कोई गाय एक दौड़ते-भागते शहर की रेलमपेल के बीच छोड़ दी गई हो। मां को अपना शहर बहुत याद आता है। जहां लोगों के पास एक दूसरे से मिलने की फुर्सत होती थी। एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होकर सांत्वना देने और हाल-चाल पूछने के क्रम में आत्मयिता होती थी। त्योहारों पर अड़ोसी-पड़ोसी एक संयुक्त परिवार की तरह हो जाया करते थे। चाहे मकान मालिक हो या किरायदार, सब मिलकर उत्सव मनाया करते थे। यहां तो किरायदार को न कोई त्योहार पर पूछता है और न शादी-विवाह के समारोह में न्यौता ही देता है। अड़ोस को पड़ोस से कोई मतलब ही नहीं। चेहरे पर भावशून्यता की परत चढ़ाए बस जिसे देखो कहीं भागा जा रहा है। किसी के पास किसी से मिलने की फुर्सत नहीं है।
कंक्रीट के जंगल में अपना आशियाना भी दमघोंटू लगता है। मकान की दहलीज से ही सड़क शुरू हो जाती है, न बागवानी का सुख और न आंगन में सुस्ताने का विकल्प। कपड़े सुखाने के लिए अरगनी बांधने तक की जगह नहीं। और अगर आप किराएदार हैं तो दीवार पर कील ठोंकने तक की पाबंदी है। बाहर निकलो तो, न कहीं पतंग लूटते बच्चे दिखाई देते हैं और न कहीं गलियों में क्रिकेट खेलते बच्चे। बस दिखते हैं तो दौड़ते वाहनों की चपेट में आने से बचते-बचाते लोग। डर तो इस बात का है कि तेजी के साथ यही जीवनशैली अब छोटे शहरों को भी अपनी गिरफ्त में ले रही है। यही सोचकर मेरी तरह मां भी अब इस बदलाव को अनमने मन से ही सही स्वीकार कर करने की आदत डाल रही है।

Wednesday, March 28, 2007

अनुराग मुस्कान: कंडोम, बिंदास बोल...!

कंडोम, बिंदास बोल...!
-अनुराग मुस्कान

एक जमाना था जब हम अपने बड़े-बूढ़ों को यह तक बताने में शर्माते थे कि अब हमारी उम्र हो चली है, हमारा शादी करने का मन कर रहा है। हमारी शादी का महूर्त तब दो ही सूरतों में निकलता था, या तो रिश्तेदार हमारे माता-पिता से कहते थे कि अब तो बेटे की शादी कर ही दो, बहू कब ला रहे हो, अब तो शहनाई बजवा ही लीजिए वगैराह-वगैराह, या फिर कोई अड़ोसी अथवा पड़ोसी शिकायत लेकर चला आए कि, 'भाई साहब, हम बहुत दिनों से बर्दाश्त कर रहे हैं लेकिन अब पानी सिर से ऊपर उठ चुका है, आपके बेटे अनुराग ने हमारी बेटी शालिनी का कॉलेज आना-जाना दूभर किया हुआ है, हम नहीं चाहते कि यह बात आगे बढ़े इसलिए बेहतर होगा आप इसे अपने स्तर पर निपटा लें, कोई अच्छी सी लड़की देखकर उसकी शादी कर दीजिए अब तो।', और हमारे माता-पिता सचमुच हमारी शादी को लेकर गंभीर हो जाते थे।
अब जमाना बदल गया है। बेटी मां से कहती है, 'मॉम, कान्ट यू अंडरस्टैंड, आई वाना गैट मैरिड...राहुल कब से वेट कर रहा है।' बेटी मां को छोड़कर राहुल के साथ अमेरिका में सेटल होने के लिए बेताब और बेकरार है। लड़की को मां और राहुल से ज्यादा इंटरेस्ट अमेरिका में है। क्या करें अमेरिका का क्रेज छूटता ही नहीं। अब तो दिमाग में भी भरतीय और अमेरिकी सोच का केमिकल लोचा होने लगा है। यह क्रास ब्रीड सोच है। हम अमेरिका की तरह बिंदास हो जाना चाहते हैं। टीवी बिंदास हो जाने की वकालत कर रहा है। वह कह रहा है कि अब 'कंडोम' भी बिंदास बोलो, इसमें शर्म कैसी? कुली से लेकर वकील तक अपने दब्बू दोस्त को कंडोम बिंदास बोलने की ट्रेनिंग दे रहे हैं। एड्स से लड़ने का यह एक बहुत बड़ा कैम्पेन है। करोड़ों इधर से उधर हुए हैं लोगों को एड्स से बचाने के लिए। हमने लाख तरक्की कर ली हो, फ्लाईओवर बना लिए हों, मल्टीप्लेक्स खोल लिए हों, मैट्रो दौड़ा दी हो, लेकिन अफसोस कि हम कंडोम बिंदास बोलना नहीं सीख पाए। यह हमें आजकल टीवी सिखा रहा है। टीवी सबकुछ सिखा ही देता है। हमारी हर दकियानूसी सोच पर टीवी हावी है। टीवी हमें बताता है कि आप अगर अमेरिका नहीं जा सकते तो अमेरिका बन जाइए। अमेरिका बनने का पहला पाठ ही यही है, कंडोम...बिंदास बोल।
बच्चे यह पाठ खूब याद कर रहे हैं। कल शहादरा से लौटते समय मेरा तीन साल का पप्पू नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कुलियों को देखते ही चिल्लाने लगा, 'कंडोम...बिंदास बोल...।' हालात मेरे लिए बेहद शर्मनाक हो गए। सुना है कि पड़ोस वाले गुप्ता साहब ने भी अपने उन्नीस वर्षीय बबलू की मार-मार कर टांग तोड़ दी। बबलू ने मौहल्ले वाली कैमिस्ट की दुकान पर जाकर बिंदास बोल दिया- कंडोम। फिर क्या था मौहल्ले भर में बात फैल गई। बड़ी थू-थू हुई गुप्ता जी की। मेरा पप्पू तो खैर मासूम है लेकिन गलती गुप्ता जी के बबलू की भी नहीं है, उस बेचारे को क्या पता की टीवी के विज्ञापन में बिंदास कंडोम बोल रहा कुली और वकील बालिग है या नाबालिग, शादीशुदा है अथवा कुंवारा। वह तो इतना ही समझ पाए हैं कि कंडोम जब भी बोलना है बिंदास बोलना है।

(12-12-2006 को 'हिन्दुस्तान' में प्रकाशित)

Tuesday, March 27, 2007

अनुराग मुस्कान: अथ श्री क्रिकेट कथा अनंता

अथ श्री क्रिकेट कथा अनंता
-अनुराग मुस्कान

अपने बेटे को क्रिकेट की भारी भरकम किट के साथ स्टेडियम जाता देख कर पड़ोस वाले शर्माजी गर्व से छाती फुलाते हुए बोले- 'देखना अनुराग जी, मेरा बेटा एक दिन कितना बड़ा मॉडल बनेगा।' मैंने कहा- 'ठीक कहा आपने, आजकल तो टीम इंडिया में कोई खिलाड़ी ऐसा नहीं है जो किसी का रोल मॉडल बन सके। मैं आपके बेटे को शुभकामनाएं देता हूं कि वह सिर्फ क्रिकेट का ऑलराउंडर ही न बने बल्कि क्रिकेट में भविष्य तलाशने वाले युवाओं का रोल मॉडल भी बने।' इतना सुनते ही शर्माजी भड़क गए। बरस पड़े- 'भाड़ में गया क्रिकेट, मैं अपने होनहार को क्रिकेट का रोल मॉडल नहीं विज्ञापनों और फिल्मों का रोल मॉडल बनाने की बात कर रहा हूं। शायद आपका सामान्य ज्ञान थोड़ा कमजोर है, आजकल मॉडलिंग और फिल्मों में ब्रेक पाने का शार्टकट क्रिकेट के मैदान से ही होकर जाता है। बड़े-बड़े ऑफर खुद आकर घर की चौखट चूमते हैं। फिल्म इंडस्ट्रीज में आजकल वैसे ही बड़ा स्ट्रगल है। इससे अच्छा तो क्रिकेट खिलाड़ी बनकर आदमी मैदान में बस दो-चार चौके-छक्के ठोकने का स्ट्रगल भर कर ले, फिर देखो, फिल्म इंडस्ट्रीज में न सही विज्ञापन जगत में तो उसकी लाटरी लग गई समझो।'
मैं स्तब्ध होकर उन्हे सुन रहा था और वह धाराप्रवाह जारी थे-
'आपको क्या लगता है मुस्कान जी कि टीम इंडिया के खिलाड़ी क्रिकेट खेलने के लिए टीम में शामिल हुए हैं? यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है, अरे, टीम इंडिया के खिलाड़ियों से कहीं ज्यादा क्रिकेट तो गली-मौहल्ले के बच्चे ईंटों का विकेट बनाकर लकड़ी के फट्टे और किरमिच की गेंद से खेल लेते हैं। न जाने कितने ही होनहार खिलाड़ी टीम इंडिया से बाहर बैठ कर अपनी बारी के इंतजार में ऐसी-तैसी करा रहे हैं लेकिन मजाल है जो उन्हे कभी मौका मिले... जानते हैं क्यों... क्योंकि उनकी शक्ल-ओ-सूरत मॉडलिंग के मापदंड़ों पर खरी नहीं उतरती। वो सब अयोग्य हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी नहीं हैं। सिर्फ क्रिकेट ही खेलना जानते हैं। यह नहीं जानते कि धनी होने के लिए पहले बहुमुखी प्रतिभा का धनी होना जरूरी है। जेब गर्म रखने के लिए खिलाड़ी का 'सबसे बड़ा खिलाड़ी', मेरा मतलब है ऑलराउंडर होना बहुत जरूरी है... मुझे अपने बेटे को कोरा क्रिकेटर बनाकर उसका भविष्य चौपट थोड़े ही करना है। आप खुद ही सोचिए, दूसरी टीमों के खिलाड़ी भले ही लाख दर्जे अच्छा खेलते हों लेकिन एक टुच्चा सा भी विज्ञापन नहीं किसी के पास... क्या मार्केट वैल्यू है... सिफर भी नहीं। एक हमारे रणबांकुरों को देखिए, रनों से ज्यादा विज्ञापन हैं उनके खातों में... मेरी समझ में नहीं आता कि जब हमारे हॉकी खिलाड़ी हॉकी नहीं खेलते, फुटबॉल खिलाड़ी फुटबॉल नहीं खेलते तो क्रिकेट खिलाड़ियों पर ही क्रिकेट खेलने का दबाव क्यों बनाया जाता है... जबकि विज्ञापन और फिल्मों में क्रिकेट से कहीं ज्यादा पैसा है... क्या समझे आप?'
और मैं द्रविड़ की तरह सब कुछ समझ जाने के अंदाज में सिर हिला कर रह गया।

(28-03-2007 को दैनिक 'हिन्दुस्तान' में प्रकाशित)

Sunday, March 25, 2007

अनुराग मुस्कान: क्रिकेट सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी

क्रिकेट सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी
-अनुराग मुस्कान

प्रश्न- वर्ल्ड कप में पहले बांग्लादेश और फिर श्रीलंका से मिली टीम इंडिया की हार से क्या साबित होता है?
उत्तर- शायद आपको गलत जानकारी है, 'हार' हमें बांग्लादेश और श्रीलंका से नहीं बल्कि बरमूडा से मिला है।
प्रश्न- जी हम फूलों के हार की बात नहीं कर रहे बल्कि हम हार-जीत वाली हार की बात कर रहे हैं, अब बताएं कि पहले बांग्लादेश और फिर श्रीलंका से मिली टीम इंडिया की हार से क्या साबित होता है?
उत्तर- अच्छा-अच्छा हार-जीत वाली हार, देखिए, इस हार से तो फिलहाल यही साबित होता है कि आजकल च्यवनप्राश, कोका कोला और तमाम एनर्जी ड्रिंक शायद नकली बन रहे हैं। इन उत्पादों की गुणवत्ता जांचने के लिए फौरी तौर पर एक टीम गठित की जानी चाहिए।
प्रश्न- टीम इंडिया की हार के लिए जिम्मेदार कौन है?
उत्तर- माफ कीजिएगा इस प्रश्न का उत्तर हम यहां नहीं दे पा रहे हैं क्योंकि दिलीप वेंगसरकर का मोबाइल लगातार स्विच ऑफ जा रहा है।
प्रश्न- हार में कोच की कितनी बड़ी भूमिका मानी जाए?
उत्तर- हां, इस हार में कोच की बहुत अहम भूमिका हो जाती है। अगर कोच बॉब वूल्मर सटोरियों से पंगा नहीं लेते तो शायद हम जीत सकते थे।
प्रश्न- हम कोच बॉब वूल्मर की नहीं बल्कि कोच ग्रेग चैपल की बात कर रहे हैं। उनके बारे में आपका क्या ख्याल है?
उत्तर- ओह! ग्रेग चैपल इज ए वंडरफुल मैन। वह तो बॉब वूल्मर से अच्छे कोच ही नहीं बल्कि बॉब वूल्मर से अच्छे खिलाड़ी भी साबित हुए हैं।
प्रश्न- टीम इंडिया की ओवर ऑल परफार्मेंस में कौन सा पक्ष सबसे कमजोर नजर आया?
उत्तर- कमांडो ट्रेनिंग का।
प्रश्न- सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, वीरेन्द्र सहवाग, महेन्द्र सिंह धोनी और युवराज सिंह के प्रदर्शन के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर- सभी का प्रदर्शन लाजवाज रहा। विज्ञापनों में ये सभी बिग बी से भी ज्यादा अपीलिंग लगे।
प्रश्न- टीम इंडिया के दृष्टिकोण से सबसे विश्वसनीय खिलाड़ी किसे कहा जाए?
उत्तर- बरमूडा की टीम के कप्तान को।
प्रश्न- क्या टीम इंडिया की रणनीति में किसी तरह का बदलाव होना चाहिए था?
उत्तर- हां, बैटिंग आर्डर में। मुनाफ पटेल, हरभजन सिंह और अजित आगरकर को ओपनिंग सीक्वेंस में भेजना चाहिए था क्योंकि इनका प्रदर्शन टीम के शीर्ष खिलाड़ियों से कहीं बेहतर रहा।
प्रश्न- टीम इंडिया की हार से सबसे ज्यादा नुकसान किसे हुआ?
उत्तर- स्पॉन्सर्स, डिस्कोथिक, बार रेस्टोरेंट और टीम इंडिया के प्रशंसकों को।
प्रश्न- टीम इंडिया की हार से सबसे ज्यादा फायदा किसे हुआ?
उत्तर- बांग्लादेश के स्पॉन्सर्स, डिस्कोथिक, बार रेस्टोरेंट और प्रशंसकों को।
प्रश्न- टीम इंडिया की हार से किसे अप्रत्याशित लाभ होगा?
उत्तर- खबरिया चैनलों को। पहले वो जीत का विशलेषण करते लेकिन अब हार पर और ज्यादा जोरदार विशलेषण करेंगे। लिहाजा उनकी टीआरपी बढ़ेगी। कुछ पूर्व क्रिकेट खिलाड़ियों को भी बड़ा लाभ होगा। वे अब हार के बारे में तरह-तरह की ख्योरी पेश करेंगे। अगर टीम जीत जाती तो वे जीत को लेकर भांति-भांति के सिद्धांत पेश करते। यानि उनकी हर हाल में बल्ले-बल्ले है।
प्रश्न- 'जीत जाएंगे हम', गीत फ्लॉप होने के बाद अब टीम इंडिया को कौन सा गीत गाना चाहिए?
उत्तर- टीम इंडिया को अब 'हम होंगे कामयाब एक दिन' गीत गाना चाहिए। वैसे भी इससे पहले यह गीत न जाने कितनी ही मर्तबा काम दे चुका है।
प्रश्न- क्रिकेट को छोड़ कर टीम इंडिया के पास क्या विकल्प बचता है?
उत्तर- अभी क्रिकेट का हाल हॉकी और फुटबॉल जैसा नहीं हुआ है इसलिए अभी विकल्प के बारे में सोचना जल्दबाजी होगी।
प्रश्न- लेकिन जनता का गुस्सा कैसे शांत होगा?
उत्तर- इसके कई उपाय हैं। एक तो यह कि कोई ज्योतिषी यह घोषणा कर दे कि भारतीय चीम पर इन दिनों शनि की ढैया चल रही है, यानी ढाई वर्ष बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा। मतलब अगला वर्ल्ड कप पक्का। जनता के बीच बरमूडा के साथ खेले गए मैच की सीडी बंटवा दी जाए। अगले वर्ल्ड कप तक लोग यह सीडी देखते रहेंगे।

(26-03-2007 को 'नवभारत टाइम्स' में प्रकाशित)

अनुराग मुस्कान: व्रत स्पेशल चाऊमीन (व्यंग्य)

व्रत स्पेशल चाऊमीन
-अनुराग मुस्कान

इस बार नवरात्रों से पहले ही हम नौ दिन के व्रत रखने को लेकर अतिउत्साहित थे। हम यानि मैं, मेरी धर्मपत्नी और हमारे मुन्ना-मुन्नी। दरअसल पिछली बार नवरात्रों पर रखे व्रत के अनुभव ने हमें रोमांचित कर रखा था। पिछली बार नवरात्रों में पूरे नौ दिन के व्रत रखना अभूतपूर्व एवं आनंददायक अनुभव सिध्द हुआ था। व्रत वाले समोसे, व्रत वाली कचौड़ी, व्रत वाली पकोड़ी, व्रत वाली चाट, व्रत वाली कुल्फी, क्या नहीं था बाजार में। इसलिए पूरे नौ दिन व्रत रखने के पत्नी के निवेदन सहित प्रेषित सुझाव को मैंने एक बार भी टालने का प्रयास नहीं किया था और झटपट व्रत रखने को तैयार हो लिया था। वैसे भी कभी-कभी पत्नी का कहा मान लो तो उसे महिला अधिकारों के प्रति पुरुषों की बेइमानी का आभास तक नहीं होता।
वैसे पत्नी का कहा मैं एक बार को टाल भी देता किन्तु टीवी पर एक पंच सितारा होटल की कमसिन और खूबसूरत शेफबाला का निमत्रंण मैं नहीं ठुकरा सका जो अपने होटल में नवरात्रों के सुअवसर पर पके विभिन्न व्रत वाले व्यंजनों का ब्यौरा देते हुए बस एक बार आने की दावत दे रही थी। मुझे याद है, प्रथम माता शैलपुत्री और द्वितीय ब्रह्मचारिणी के व्रत दिवस पर हमने सुबह नाश्ते में फल-फ्रूट का जोरदार चाट बनाकर डकारा था और दोपहर को देशी घी में तर माल सेंधा नमक के साथ पका कर चकाचक पेट पूजा की थी। शाम को निकल गए थे पास के फूड प्लाजा मार्केट में और व्रत वाले भल्ले, व्रत वाले डोसे, व्रत वाली इटली खाकर व्रत सफल बनाया था। इन दो दिनों में व्रत के माध्यम से हमारा भक्ति भाव देखकर मुन्ना-मुन्नी में भी माता की लगन भक्ति रस बनकर लार टपकाने लगी थी। उन्होने ने भी ऐलान कर दिया था कि कल से वह भी व्रत रखेंगे।
फिर क्या था तीसरी देवी चंद्रघंटा से लेकर नौवीं देवी सिध्ददात्री तक मुन्ना-मुन्नी भी व्रत में रहे थे। बाजार को केवल हमारी ही नहीं बल्कि मुन्ना-मुन्नी की भी भरपूर चिंता थी। तभी तो उनके लिए भी व्रत वाली चाऊमीन, व्रत वाले मोमोज्, व्रत वाला सूप और व्रत वाले बर्गर का बंदोबस्त लगभग हर चौराहे पर था। भक्ति में निश्चित ही बडी शक्ति होती है। दो ही दिन में हमें व्रत का फल मिलने लगा। मेरे ऑॅफिस में बॉस को जैसे ही पता चला कि मैंने पूरे नौ दिन के व्रत रखे हैं उसने तरस खाकर मेरे हिस्से का काम भी मेरे एक कर्मठ सहयोगी की टेबल पर पटवा दिया। 'आजकल व्रत में हूं यार बाद में बात करूंगा।', बस इतना कहते ही रुपये-पैसों का तकाजा करने वाले भी बस चुपचाप आश्वासन का प्रसाद लेकर लौट जाते थे। उधर पत्नी भी नवरात्रि स्पेशल किटी पार्टीयों और ऐसे ही नवरात्रि स्पेशल मेले-तमाशे के आयोजनों में तंबोला, म्यूजिकल चेयर, गरबा और डांडिया खेलकर बहुतेरे ईनाम जीत लाई थी। मुन्ना-मुन्नी भी नौवीं पर कन्या-लुंगुरा के रूप में पूजे जाने पर हलुवा-पूड़ी के साथ मिलने वाले पैसों का हिसाब-किताब लगाने में प्रथम दिवस से ही अति उत्साहित थे।
नौ दिनों के व्रत में भांति-भांति का व्रत स्पेशल खा-खाकर हृदय से बस एक ही पुकार निकलती रही कि हे मां, तूने काहे केवल नौ ही रूप धरे, पूरे तीन सौ पैंसठ रूप धरने में तेरा क्या जाता था सर्वदाती। यह व्रत वाला फंडा तो बहुत सॉलिड है सिध्दिदायनी। एक सितारा होटल से लेकर पंच सितारा होटल तक सभी व्यवसायी व्रत स्पेशल रेग्यूलर थाली, व्रत स्पेशल एक्जिक्यूटिव थाली और व्रत स्पेशल एक्सक्लूसिव थाली तेरे भक्तजनों को परोस कर पुण्यलाभ कमा रहे थे मां लक्ष्मीस्वरूपा। मैंने तो व्रत स्पेशल खमण ढोकला और व्रत स्पेशल मक्के दी रोट्टी ते सरसों दा साग, ओ भी मख्खन पा के खाया तो मेरे मन विच आया कि अब वह दिन भी दूर नहीं जब व्रत स्पेशल मदिरा के साथ व्रत स्पेशल नानवेज वैराइटी के पैकेज भी उपवास के दौरान भक्तों में ऊर्जा और शक्ति का संचार करेंगे। अब वो दिन हवा हुए साहब जब अन्न की तासीर के मिली ताकत की कमी को बस भक्ति की शक्ति ही पूरा करती थी। नया जमाना है भक्तजनों, यहां तो भूखा रह कर उपवास अब केवल गरीब ही रख सकता है और कोई बडी बात नहीं कि कल उसके लिए भी कोई व्रत स्पेशल स्कीम बाजार में आ जाए। मल्टीनेशनल कंपनियां हर वर्ग के लिए फिमंद हैं। तरस आता है उन दादी-नानी टाइप माताओं पर जो आज भी लौंग के दो जोड़ों पर नवरात्रि का व्रत रखकर नौ दिनों में शारीरिक रूप से कमजोर हो जाया करती हैं। अरे जरा सोचिए, ऐसे में जब भगवान भी चकाचक दूध पीने लगे हैं, हमें भी तो मलाई मारनी चाहिए। सो इस बार भी हम पूरे नौ दिन के व्रत पर हैं। जय माता दी।

(24-03-2007 को 'दैनिक भास्कर' में प्रकाशित)

Friday, March 16, 2007

स्मृतिशेष- बिस्मिल्लाह खां (संस्मरण)

मंगल ध्वनि से शोक धुन तक
-अनुराग मुस्कान
सन् दो हजार की बात है। ताजमहल के पार्श्व में एक म्यूजिकल टीवी शो की रिकार्डिंग चल रही थी। एक सदी की विदाई और दूसरी सदी के स्वागत की थीम पर आधारित इस कार्यक्रम में संगीत और सिनेमा जगत की कई जानी-मानी हस्तियां शिरकत कर रही थीं। मैं, अन्य लोगों के साथ इस कार्यक्रम की यूनीट को स्थानीय स्तर पर सहयोग कर रहा था। इस कार्यक्रम की शूटिंग में एक दिन शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत गायन और वादन की प्रस्तुतियों के लिए तय कर दिया गया था। इसमें शास्त्रीय संगीत में गायन और वादन से जुड़ी तमाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हस्तियों के साथ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब की प्रस्तुति भी होनी थी। दर्शक दीर्घा में भीड़ कुछ उद्दंड थी। संभवतः मनमोहक नृत्य अथवा सुगम संगीत प्रस्तुतियों की उम्मीद में बैठे लोग शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों को हजम नहीं कर पा रहे थे और कलाकारों द्वारा बार-बार तवज्जो की गुजारिश के बावजूद लगभग सभी को हूट कर रहे थे। ऐसे में उस्ताद की बारी आई। उस्ताद ने किसी से तवज्जो की भीख नहीं मांगी बल्कि मंच पर आते ही बड़ी शालीनता के साथ माइक संभाला और बोले, 'मैं ज्यादा तो बोलता नहीं, शहनाई की जुबान जानता हूं, बस इतना ही कहना चाहता हूं की मेरा नाम बिस्मिल्लाह खां है, माफी चाहूंगा मैं अब शहनाई बजाने जा रहा हूं, आप चाहें तो कानों में रुई ठूंस सकते हैं।' उस्ताद के इतना कहते ही सन्नाटा पसर गया और फिर कम से कम उस्ताद की प्रस्तुति के दौरान कोई हो-हल्ला नहीं हुआ। यही नहीं कार्यक्रम के अंत में जब बेशुमार तालियां बजीं तो उस्ताद ने यही कहा कि, 'मुझ से पहले भी जो कलाकार आए उनकी प्रस्तुति मुझसे भी बेहतर थी लेकिन उनकी बदनसीबी रही कि आप उन्हे तवज्जो न दे सके।' मैंने दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों को पानी-पानी होते देखा। दर्शकों की भीड़ को नियंत्रित करने का जो काम आयोजक, सुरक्षाकर्मी और व्यवस्थापक नहीं कर पाए वह काम उस्ताद ने दो शब्द कह कर दिखाया। यकीन जानिए, यह उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ही कर सकते थे। इस संस्मरण को लिखने के बाद उनके व्यक्तित्व का विशलेषण करने आवश्यकता नहीं रह जाती।
उस्ताद के अंदर छिपे इंद्रधनुष को रेखांकित करना पृष्ठों पर संभव नहीं है। इसी कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मुझे कुछ दूर तक उस्ताद की व्हील चेयर चलाने का सौभाग्य भी मिला। दरअसल जमुना की रेत पर बने कृत्रिम रास्ते से उन्हे ताजमहल के पश्चिमी गेट पर तैनात वाहन तक छोड़ने जाने का मौका था यह। अपना परिचय देने और उनसे बात करने के उत्साह और क्रम में इतना तल्लीन हो गया कि फिर उस्ताद की डांट से ही तंत्रा भंग हुई। 'अबे, गड्डे में गिरा के जान लेगा क्या हमारी?' अगर उस्ताद न चीखते तो व्हील चेयर मेरी लापरवाही से रेत में बने एक गड्डे में गिर सकती थी। हालांकि उस्ताद की डांट में नानाजी और दादाजी सरीखा स्नेह था लेकिन फिर भी घबराहट में मेरे पसीने छूट गए। मैंने उस्ताद से माफी मांगी। उस्ताद मेरी हालत देखकर हंस पड़े। बोले, 'बेटा, हमारा क्या है, तुम लोग भले ही हमें गड्डे में डाल दो, हम वहां भी शहनाई बजाना नहीं छोडेंगे।', 'आपको चाहने वाले वहां भी आपको सुनने चले आएंगे सर।', मैंने गुस्ताखी ही सही लेकिन बड़ी हिम्मत करके उन्हे जवाब दिया। उस्ताद खुलकर हंस पड़े। मेरी जान में जान आई। लेकिन छः साल बाद आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं तो उनकी इस बात का कि तुम लोग भले ही हमें गड्डे में डाल दो का मर्म समझ में आ रहा है। उन वजहों की तलाश करने को जी चाहता है जिनके चलते उस्ताद को उनकी सादगी का सिला नहीं मिला।
उस्ताद के सुपुर्द-ए-खाक होने पर इलाहाबाद के सुविख्यात शास्त्रीय गायक प्रो.रामआश्रय झा को सुन रहा था। चौदह साल की उम्र में उस्ताद ने इलाहबाद में ही अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी थी। उसके कुछ सालों बाद एक कार्यक्रम के लिए जब रामआश्रय जी उन्हे आमंत्रित करने वाराणसी पहुंचे तो उस्ताद की ओर से अपनी प्रस्तुति का पारिश्रमिक चालीस हजार रुपये मांगा गया लेकिन रामआश्रय जी के यह याद दिलाने पर कि यह वही मंच है जहां उस्ताद ने अपनी पहली मंचीय प्रस्तुति दी थी और चूंकि इलाहाबाद के सुधि श्रोता उनके पुनः आगमन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, उस्ताद मुफ्त में शहनाई बजाने चल पड़े। उस्ताद की इसी जिंदादिली का आगे चल कर कुछ लोगों ने अवांछित लाभ भी उठाया। प्यार के दो बोल में बिक जाने वाले उस्ताद इस दुनिया से जाते वक़्त इसी तरह की कई शिकायतें भी दिल में जज्ब करके ले गए। कितने ही सरकारी कार्यक्रमों का पारिश्रमिक तो उस्ताद को मरते दम तक नहीं मिल सका, अपने कई साक्षात्कारों में उस्ताद इसके प्रति नाराजगी भी जाहिर करते रहे। उनके जाने के बाद भले ही झंडे आधे झुका दिए जाएं, राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर दिया जाए, उनकी याद में कागज पर लिखा शोक संदेश पढ़ने की औपचारिकता निभाई जाए मगर इस सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता कि जीते-जी सरकारों ने उस्ताद को नजरअंदाज किया। हालांकि सरकारी उपेक्षा से उस्ताद का कद जरा भी नहीं घटता। वह तो संगीत समझने वालों के मुरीद थे और सियासत करने वाले संगीत की भाषा क्या समझेंगे।
शहनाई की बात पर हमेशा उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब का नाम लिया गया लेकिन फिर भी मंदिर में बैठकर शहनाई बजाने वाले और गंगा के प्रवाह से जुगलबंदी करने वाले इस मुसलमान की बारी अपने समकालीन कलाकारों के मुकाबले सबसे बाद में आई। सर्वसुख-सुविधा संपन्न अपने समकालीन साथी कलाकारों की तुलना में उस्ताद हमेशा दयनीय हाल में रहे। उस्ताद चाहते तो अपने लिए बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर और क्या कुछ नहीं जुटा सकते थे। सिर्फ संगीत साधना को ही अपनी जिंदगी का मकसद बना देने के जुनून की यह एक मिसाल भी है। इसे बेमिसाल कहें तो शायद ज्यादा उपयुक्त रहेगा। इंडिया गेट पर एक बार शाहनाई बजाने की हसरत उस्ताद अपने साथ ही ले गए, इसे उस्ताद का नहीं, इस देश का दुर्भाग्य कहा जाएगा। कोई कलाकार अपने से उम्र में बड़ा हो, बराबर का हो अथवा छोटा हो, खां साहब ने कभी उसकी तारीफ में कसीदे कढ़ने में देर नहीं की, फिर चाहे इसके लिए उन्हे उस कलाकार के पास खुद ही उठ कर क्यों न जाना पड़े। उस्ताद इस देश के हर आमो-खास के सुख-दुख के साथी रहे। छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त की सुबह का इस्तकबाल अपनी शहनाई से निकली मंगन ध्वनि से करने वाले और हर दुखःद पल पर शोक धुन बजा कर संबल देने वाले इस महान शहनाई वादक के जाने पर किसी ने कुछ नहीं बजाया, न तबला, न सारंगी, न सितार, न संतूर, न जलतरंग, न वीणा, न सरोद, न बांसुरी और न उस्ताद की पसंदीदा कजरी ही गाई। उनके जाने पर भी पृष्ठभूमि में उन्ही की शहनाई रोई। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां केवल शहनाई को ही बेवा नहीं कर गए बल्कि हर उस उम्मीद को बेवा कर गए जो उनसे बाबस्ता थीं।

अनुराग मुस्कान: नारी तुम केवल श्रद्धा हो...? (लेख)

श्रंगार और हास्य के बहाने छली गई नारी
-अनुराग मुस्कान


कुछ दिन पूर्व मैं उत्तरप्रदेश बोर्ड की बी.ए. तृतीय वर्ष की हिन्दी साहित्य की एक पुरानी दिग्दर्शिका के पृष्ठ पलट रहा था। दिग्दर्शिका में, हिन्दी साहित्य की रूमानी कविताओं में नारी भूमिका के विभिन्न आयामों का बखान करती एक व्याख्या पर दृष्टि ठहर गई। व्याख्या के बीच-बीच में हिन्दी के कुछ प्रतिनिधि कवियों के कविता अंश भी उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत थे। प्रस्तुत कविता अंशों में रूमानियत के नाम पर नारी स्वरूप को किसी स्वादिष्ट व्यंजन की तरह कथित प्रेम की चाश्नी में लपेटकर परोसा गया था। चर्चा से पूर्व कुछ कविता अंश यहां भी प्रस्तुत हैं- 'आह, मेरा श्वास है उत्पत्त/ धमनियों में उमड़ आई है लहू की धार/ प्यार है अभिशप्त/ तुम कहां हो नारी?' यौनाकर्षण की एक और अकुण्ठ अभिव्यक्ति इस प्रकार थी- 'आज मुख्य मेहमान तुम/ रात के इस फ्लोर शो में/ एक बार बस एक बार/ अपने तन की छाप छोड़ जाओं मुझ पर!' एक अन्य उदाहरण- 'तुम्हारे स्पर्श की बादल धुली कचनार नरमाई/ तुम्हारे वक्ष की जादू भरी मदहोश गरमाई!' एक कवि महोदय कहते हैं- 'मेरा वश चलता मैं/ बन जाता कौमार्य तुम्हारा/ होठों का निर्माल्य अछूत/ बनकर मैं छा जाता/ अंगों के चम्पाई रेशमी/ परदों में सो जाता....!' ध्यान दें तो इन कविता अंशों में प्रेम निमंत्रण के संबोधन अपनी प्रेयसी अथवा नायिका विशेष पर केन्द्रित न होकर पूरी नारी जाति पर केन्द्रित जान पड़ते हैं।
सबसे पहला सवाल यह कि क्या नारी देह को उघाड़ती इन पंक्तियों को श्रंगार रस की कविताओं का उदाहरण माना जा सकता है। या फिर यह श्रंगार रस में सौंदर्यबोध के बहाने पंक्तियों के माध्यम से कवि की वासनात्मक सोच का विस्फोट है। नारी। केवल एक शाब्दिक संरचना मात्र नहीं है। कवि मैथिलीशरण गुप्त ने जब, 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो', पंक्तियां सृजित की होंगी, तब शायद उन्हे भी यह पूर्वाभास रहा होगा कि उनकी यह पंक्तियां आगे चलकर कविता के साहित्यिक संदर्भों में एक नये सिरे से अपनी प्रसंगिकता तलाश करेंगी। या तो यह पंक्तियां गुप्तजी ने कविता में श्रंगार रस के नाम पर नारी की बेचारगी के पूर्वाभास से ग्रसित होकर लिखी होंगी अथवा साहित्य के पृष्ठों पर नग्न होती नारी की आबरू बचाने के प्रयास स्वरूप। इसे हम समकालीन विरोधाभास भी कह सकते हैं कि श्रद्धा की प्रतिमूर्ति गुप्त की नारी, श्रंगार रस के पृष्ठों पर बलत्कृत होकर बिलखती ही रही। यहां सवाल यह नहीं है कि ऐसी कविताएं गिनती में कम हैं या ज्यादा बल्कि सवाल यह है कि इन रचनाओं और इनके रचयिताओं का साहित्यिक समाज ने कभी बहिष्कार क्यों नहीं किया, जबकि श्रंगार रस के बहाने इन रचनाकारों ने नारी के संबंध में अपनी विकृत सोच को साहित्यक शब्दावली के कंधे पर रखकर दागा है। नारी के हृदय में समाहित ममता और करुणा के सागर की लहरें गिनने, उसके सौंदर्य और सहनशक्ति की प्रंशसा करने और प्रकृति के रूपकों से उसके अनेकों रूपों का बखान करने की बजाय, नारी को मात्र शारीरिक सुघढ़ता के आधार पर आह भरते हुए उपभोग करने की एक वस्तु प्रचारित किया गया। रचनाधर्म का यह अनुष्ठान समझ से परे है।
स्त्री हमेशा से ही कवियों के लिए कविता में अचूक प्रयोगात्मक माध्यम रही है। कविता में अनूठी शैली के नाम पर नारी के साथ उसकी ही अनिच्छा से तमाम प्रयोग होते रहे हैं। श्रंगारी कविताओं में भोग ली गई नारी आगे चलकर हास्य कविताओं में चुटकुला बनाकर छली गई। कई हास्य कविओं ने हास्य कविता में अपनी ही पत्नी को हास्य की उत्पत्ति का माध्यम बनाने के लिए बड़ी ही बेबाकी के साथ उनकी सार्वजनिक खिल्ली उड़ाई। नारी को हास्य कविता के केन्द्र में रखकर उसका मखौल उड़ाए जाने और उसे व्यंग्य बाणों से छलनी करने का क्रम अनवरत जारी है। कविता साहित्य में नारी को लेकर फूहड़ और अश्लील प्रयोगवाद की परंपरा का अनुसरण सफलता की गारंटी बन गया है। ऐसे में भले ही पतिव्रताएं अपने कविवर पति की ख्याति पर हो रही करतल ध्वनि के शोर से अभिभूत हो गईं हों किन्तु हास्य-व्यंग्य और श्रंगार के नाम पर नारी जाति की हो रही जगहंसाई से उसके अपमान की गंभीरता का रुदन भी साफ सुनाई देता है।
नारी कहते ही अथवा नारी को सृष्टि का पर्याय कहते ही उसके अनेक ममतामयी स्वरूप जीवंत हो उठते हैं। सृष्टि और नारी में एक दूसरे के अस्तित्व का बोध समाहित है। ऐसे में बेहद अफसोसजनक है कि पुरूष वर्ग ने अपने मानसिक उपद्रव के हाथों की कठपुतली बनकर अभिव्यक्ति के लगभग प्रत्येक माध्यम में नारी पर मनचाहे और अनचाहे प्रयोग किये। फिर चाहे वह हिन्दी साहित्य हो, फिल्म हो अथवा टेलीविजन हो। घूंघट में सिमटी और शरमाई एक भोली-भाली स्त्री को साहित्य के पृष्ठों और रूपहले पर्दे पर नग्न करने की होड़ अब तक जारी है। समझ में नहीं आता कि नारी के प्रति श्रद्धा की संचार भावनाओं में आखिर कब, कैसे और कहां अवरोध आ गया। एक श्लील सांचे में ढली हुई नारी को अश्लील सांचे में फिट करने की बाध्यता के पीछे की मानसिकता के समीकरण आखिर क्या रहे होंगे? नारी की इस प्रदूषित छवि के लिए जिम्मेदार चाहे जो भी हो किन्तु फिलहाल यह समझ पाना थोड़ा कठिन जान पड़ता है कि रचनाधर्मी पुरुषवर्ग की कथित रचनात्मकता की इस अंधी दौड़ में कौन नारी की श्रद्धात्मक छवि का समर्थक है और कौन उसकी मांसल देह से स्फुटित मदमाती खुशबू का दीवाना। शायद यह असमंजस सदैव ही प्रश्नवाचक बना रहेगा। क्योंकि एक ओर 'नारी का कौमार्य' बन जाने की प्रबल इच्छा रखने वाली जमात से कविता का एक प्रतिनिधि साहित्य साधक यह भी कहता है कि 'माता बनी दूध भर आया/ किन्तु न भरता पापी पेट/ जननी बनकर भी पशुओं के/ आगे नग्न सकेगी लेट।' अब इसका क्या तात्पर्य निकाला जाए, क्या माता बन जाने के उपरांत ही नारी 'पशुओं' के समक्ष नग्न लेटी दिखाई देती है, उससे पूर्व नहीं? क्या अपनी रचनात्मक कही जाने वाली अभिव्यक्ति के लिए पुरुष वर्ग को, एक नवयौवना के सुंदर केश, कजरारी आंखें, रसीले होंठ, उन्नत वक्ष, मादक उरोज और मांसल जंघाओं के अतिरिक्त उसका सशक्त संवेदनात्मक, भावनात्मक और रचनात्मक व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता। समाज और साहित्य में रचनात्मकता के नाम पर कवियत्री ममता अग्रवाल की यह पंक्तियां चरितार्थ ही कही जाएंगी कि 'प्यार शब्द घिसते-घिसते/ चपटा हो गया/ अब हमारी समझ में सहवास आता है।'
संभव है कि नारी के संबंध में किसी भी उन्मुक्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए श्रंगार रस में व्याप्त असीमित संभावनाओं और विस्तृत परधि का तर्क प्रस्तुत किया जाए। किन्तु यह भी सत्य है कि रूमानियत के समंदर की गहराई और उसके किनारों को नापने के उपक्रम में प्रेम से लेकर वासना तक प्रत्येक संभावना की कल्पना को साकार करने की जुर्रत की गई। विचार मंथन करें तो यह सत्य अंधेरे में लाल बत्ती की भांति चमकता दिखाई देगा कि पुरुष की उपस्थिति के बगैर नारी का उपभोग असंभव है। नारी अकेले ही गर्भावस्था को प्राप्त नहीं कर सकती। संभवतः पुरुषार्थ के इसी दंभ के चलते नारी का चारित्रिक और वैचारिक स्तर हमेशा पुरुष मानसिकता से ही निर्धारित हुआ है। नारी की स्वतंत्रता के समर्थन में दावा करने वाले कुछ रचनात्मक पुरुष, सामंती युगों का अनुसरण करते हुए, नारी को अपनी वासना की तृप्ति का साधन घोषित करते रहे हैं। इसे श्रंगार रस के मनोवैज्ञानिक विशलेषण की विफलता ही कहा जाएगा कि प्रेम के विषय पर किए गए रचनाकर्म के परिणामों में ही साधनात्मक, उत्सर्गपूर्ण और विशुद्ध प्रेम का सर्वाधिक अभाव रहा है। नारी के मन और आत्मा का स्पर्श करने की फुर्सत उसके गालों, होठों और वक्षों के स्पर्श में गंवाई गई।
नारी को श्रंगारी रचनाओं की मनमोहक नायिका बनाकर प्रस्तुत करना तब तक गलत नहीं है जब तक उस पर कामुकता हावी न हो जाए। या फिर नारी पर हास्य अथवा व्यंग्य करना तब तक अशोभनीय नहीं है जब तक उसकी गरिमा एवं नारीत्व की भावनाएं आहत न हो रही हों। अभिव्यक्ति में शालीनता और सहजता से भी रचनात्मकता परोसी जो सकती है, उन्ही मौलिक मूल्यों के साथ, जिनके साथ उस रचना से संबंधित विचारभावों की उत्पत्ति हुई हो। संसारिक एवं सांस्कारिक आवरणों से मुक्त होकर रचनात्मकता का अधर्म तो निभाया जा सकता है, धर्म नहीं। कुछ साहित्य साधकों और फिल्म निर्माता-निर्देशकों ने श्रंगार और रुमानियत के विषयों पर प्रयोग करते समय नारी के संबंध में शालीन और सहज अभिव्यक्ति दी भी है। निराशाजनक तो यह है कि हम प्रेमचंद के कथा-साहित्य पर आवश्यक और अनावश्यक चर्चाएं और परिचर्चाएं तो अक्सर करते रहते हैं किन्तु कभी हिन्दी साहित्य की ऐसी गंभीर विसंगतियों को हमने एक सार्थक बहस के लिए उपयुक्त नहीं समझा। बहरहाल, वैचारिक और शाब्दिक अनुष्ठानों में तरह-तरह से छली गई नारी की घायल देह और हृदय पर 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' का मरहम आज भी काम देता है।

Thursday, March 15, 2007

अनुराग मुस्कान: पत्रकारिता से प्रेतकारिता तक (व्यंग्य)

रंगीले की ख़बर
-अनुराग मुस्कान
मेरे पड़ोस में रहने वाले बबलू रंगीला उम्र पच्चीस वर्ष और उसके सामने रहने वाली छबीली उम्र इक्कीस वर्ष ने कल जहर खा लिया। सुना है मामला प्रेम-प्रसंग का था और दोनों पक्षों के परिवारवाले बबलू रंगीला और छबीली की शादी के घोर एवं कट्टर विरोधी थे। ताजा खबर यह है कि रोज-रोज होने वाले परिवारिक पंगों से हार कर किए गए इस आत्महत्या के प्रयास में बबलू रंगीला तो जीत गया लेकिन छबीली हार गई। पूरी रात छबीली का इलाज चला और उसे बचा लिया गया। हालांकि उसकी हालत अब भी गंभीर बनी हुई है। बेहोशी की हालत में भी वह बस बबलू-बबलू पुकार रही है। मैंने मामले की गंभीरता को देखते हुए तुरंत एक खबरिया चैनल में कार्यरत अपने एक रिपोर्टर मित्र को फोन लगाया और उन्हे पूरी घटना का ब्योरा देते हुए इस पर एक ऐसी रिपोर्ट बनाने की पेशकश की जिसे देखकर लोग जान सकें की अंतर्जातीय विवाह के विचारों का स्वागत करने का दम भरने वाले समाज में ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो अपनी संकुचित मानसिकता के आगे किसी स्वस्थ विचार को पनपने ही नहीं देते।
मित्र ने पूरी कहानी सुनकर पहले तो इस घटना पर गहरा अफसोस जताया और फिर सवाल दागा, 'कहीं ऐसा तो नहीं है अनुराग भाई कि इस लड़की छबीली पर उसका मामा या चाचा बुरी नजर रखता हो और इसी के चलते बबलू को धमकाया जाता रहा हो, आजकल ऐसा बहुत हो रहा है न।'
'नहीं-नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है, बल्कि पारिवारिक प्रताड़ना और उत्पीड़न की वजह से ही दोनों ने ऐसा कदम उठाया है।' मैंने स्पष्ट किया।
'ओह-हो, यह तो मामला गड़बड़ हो गया, मामा-चाचा की सैटिंग का कोई सीन नहीं है तो कम से कम छबीली पर बुरी नजर रखने वाला अड़ोस-पड़ोस का ही कोई लड़का होता। लव ट्रायंगल तो होना ही चाहिए था, खबर में कुछ तो जान आती, अभी तो सब कुछ एकदम फ्लैट यानि सीधा-सपाट है, ट्रायंगल तो छोड़ो इसमें तो कोई एंगल ही नजर नहीं आता और वैसे भी आत्महत्या करना तो अपराध की श्रेणी में आता है, हम अपराध को ग्लोरिफाई तो कर नहीं सकते हैं न।' मित्र मुझे समझाने लगे।
'अरे, लेकिन किसी को आत्महत्या करने के लिए बाध्य करना भी तो बड़ा अपराध है।' मैंने कहा।
'अमां यार, अब हम भी तुम्हारी तरह इमोश्नल होने लगे तो बटोर ली हमने टीआरपी, रोज मोहब्बत में सैंकड़ों लोग जान देते और लेते हैं, सबकी खबर दिखाने लगे तो हमारे चैनल पर तीन सौ पैंसठ दिन चौबीसों घंटे बस यही ड्रामा चलता रहेगा। देखो, टीवी पर आने के लिए खबर में स्कोप होना चाहिए, खबर का बिकाऊ होना बहुत जरूरी है, समझे।' मित्र मेरी खिल्ली सी उड़ाते बोले।
'तो इसका मतलब यह हुआ कि इस घटना पर कोई खबर नहीं बन सकती और इस मामले का किसी खबरिया चैनल पर कोई भविष्य नहीं है?' मैं हताशा था।
'हिम्मत मत हारो दोस्त, इस घटना पर खबर भी बन सकती है और इसका सुनहरा भविष्य भी हो सकता है, लेकिन इसके लिए हमें और तुम्हे थोड़ा इंतजार करना होगा।'
'इंतजार, मैं कुछ समझा नहीं?' मैंने पूछा।
'बस तुम उस लड़की छबीली पर नजर रखो, हो सकता है कि वह बबलू की याद में पागल हो जाए, तब इसमें प्रेम दीवानी वाला हिट एंगल खोजा जा सकता है। हम दिखा सकते हैं कि प्रेम में केवल मजनूं ही नहीं लैलाएं भी पागल हो सकती हैं, 'बौरा गई छबीली' के टाइटल से हम इस पर देर तक खेल सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि छबीली आगे चलकर किसी नाग पर पूर्वजन्म का बबलू होने का दावा कर दे। पुनर्जन्म में किसी के भी नाग-नागिन बन जाने वाले एंगल तो किसी भी चैनल के लिए ब्लॉक बस्टर हैं। इस सब्जेक्ट पर प्रोग्राम बनने से पहले ही बिक जाता है। प्रोग्राम का टाइटल हम रखेंगे, 'बबलू बना नाग?', इस प्रोग्राम में नाग पर फोकस के साथ स्टूडियो में लड़की के अलावा कुछ एक्सपर्टस् भी होंगे। लड़की कहेगी यह नाग नहीं बबलू है, एक्सपर्ट कहेंगे यह बबलू नहीं नाग है। इस झगड़े से फिक्शन क्रिएट होगा, वही हमें चाहिए होता है। हम इस मसले पर टोल फ्री नंबर और एसएमएस का फंड़ा भी आजमा सकते हैं। या फिर कुछ नहीं तो ऐसा ही हो जाए की बबलू रंगीला भूत बनकर लोगों को परेशान करने लगे, हिमेश रेशमिया के किसी गाने पर नाचने लगे तो समझो मामला फिट ही नहीं हिट भी है। हम किसी को भी न दिखने वाले बबलू रंगीला का भूत देर तक प्राइम टाइम में दिखा सकते हैं। इस प्रोग्राम का नाम भी हम धांसू टाइप रखेंगे जैसे, 'भूत मांगे इंसाफ' या 'एक भूत की लव स्टोरी', मामला जम जाएगा।'
'और अगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ तब क्या करोगे महाशय?' मैंने जानना चाहा।
'तब, तब तो हमें छबीली के मरने का इंतजार करना होगा यार, फिर कुछ सालों बाद हम उस इलाके में एक-दूसरे से लिपटे नाग-नागिन को ढ़ूंढ़ निकालेंगे और कहेंगे यह हैं पूर्वजन्म के बबलू रंगीला और छबीली जिनका नाग-नागिन के रूप में पुनर्जन्म हुआ है। खास तौर पर प्राइम टाइम के लिए हम, 'तू मेरा नाग मैं तेरी नागिन' के टाइटल से एक धमाकेदार शो बनाएंगे जिसमें बबलू रंगीला और छबीली के प्रेम प्रंसगों के नाट्य रूपांतर के साथ नाग-नागिन के लिपटा-चिपटी के दृश्य दिखाकर हम एक दिन के लिए ही सही लेकिन सारी की सारी टीआरपी लूट लेंगे।'
मित्र की बातें सुन कर मुझे आज से तीन साल पहले उनसे हुई मुलाकात याद आ गई जब मित्र अखबार छोड़कर टीवी में जा रहे थे। तब मुझे लगा था कि मेरे मित्र अपनी कुशाग्र बुद्धि का समायोजन जब दृश्यों के साथ करेंगे तो पत्रकारिता जगत में क्रांति आ जाएगी। खैर, इतना तो कह सकता हूं कि 'क्रांति' तो आई है। एक क्रांति के बदले हमें इस देश में लोकतंत्र स्थापित करने की आजादी मिली थी और अब देख रहा हूं कि मित्र वाली क्रांति से खबर के नाम पर मनमाने ढ़ंग से कुछ भी दिखाने और उसे जबरदस्ती थोपने की भरपूर आजादी लूटी जा रही है। पत्रकारिता की डोर अब पत्रकारों के हाथ से छूटकर नाग-नागिनों और भूत-प्रेतों के हाथों में जो चली गई है।


(12/11/2006 को रविवारी जनसत्ता में प्रकाशित)

अनुराग मुस्कान: एक एलआईजी बने प्यारा (व्यंग्य)

एक एलआईजी बने प्यारा
-अनुराग मुस्कान
'एक बंगला बने प्यारा...', यह गीत वर्तमान संदर्भों में भले ही हास्यास्पद लगे किन्तु एक समय में भविष्य को लेकर सकारात्मक इच्छाशक्ति का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता था। गायक और नायक ने जिस सहजता के साथ इस गीत में अपना बंगला बनने के विश्वास को दोहराया है वह निश्चित ही मौजूदा हालातों में किसी के लिए भी हिम्मत का काम हो सकता है। बढ़ती महंगाई से भी तेज बढ़ते प्रॉपर्टी के दामों और प्रॉपर्टी के दोमों की होड़ में लगातार बढ़ती महंगाई की रफ्तार देखकर मैं तो इस गीत को गुनगुनाते हुए भी डरता हूं। हां, कभी-कभी जब गुसलखाने में नहाते वक्त पीठ पर साबुन मलते हुए आंखें बंद होती हैं तो अक्सर कंक्रीट का एक जंगल दिखाई पड़ता है, इस जंगल में एक 'वन प्लस वन' के अपने ठिकाने की कल्पना में मन ही मन बंगले की जगह एलआईजी लगा कर जरूर एक लाइन गुनगुना लेता हूं, 'एक एलआईजी बने प्यारा...।' लेकिन यह सपना भी अभी हाल-फिलहाल साकार होता नहीं लगता।
ठेकेदार से लेकर किरायदार तक जानते हैं कि आजकल प्रॉपर्टी के दामों में जबरदस्त आग लगी पड़ी है किन्तु यह आग कैसे लगी और किसने लगाई यह कोई नहीं जानता। यह आग कब बुझेगी यह भी कोई नहीं बताता। बस, सभी एक ही सलाह देते हैं कि समय रहते एक अपना घर बना लो वरना आने वाले समय में फुटपाथ पर भी जगह नहीं मिलेगी। मैं तो उस दिन के बारे में सोचता हूं कि जब मुझ जैसे आम आदमी को फुटपाथ पर भी जगह नसीब नहीं होगी, तब वो बेचारे गरीब कहां जाएंगे जो पहले से ही फुटपाथ पर हैं। उन बेचारों का क्या होगा? देखा न आपने, बस मुझमें यही एक कमी है, अपनी छोड़ कर दूसरों की फिक्र में दुबला होने लगता हूं। तभी तो आज तक अपने लिए एक घर भी नहीं बना पाया।
अभी परसों ही टीवी पर मल्लिका सेहरावत के बंगले का गुसलखाना देखा। वह देखाना भी मजबूरी थी, टीवी दिखा जो रहा था। अब तो टीवी पर भी वही देखना पड़ता है साहब जो टीवी दिखाता है, जो हम और आप चाहते हैं वह टीवी दिखाने लगा तो बेचारे टीवी वाले खाएंगे क्या? खैर, बात मल्लिका सेहरावत के गुसलखाने की चल रही थी। क्या गुसलखाना था साहब! किसी मल्टीप्लैक्स की कार पार्किंग से भी बड़ा। इतना बड़ा कि बीस-बीस ओवर का एक फ्रैंडली मैच करा लीजिए। अब मेरे जैसा सौंदर्यबोध रहित मूर्ख आदमी तो इतना ही सोच सकता है न, बड़ी सोच वाले तो इसे संपन्नता में भी जीवित कलात्मकता कह कर सराहते हैं। मल्लिका का गुसलखाना देखकर मेरी पत्नी उछल कर बोली, 'सुनिए जी, मैं तो कहती हूं कि ये घर-वर का चक्कर छोड़िए और एक ऐसा गुसलखना ही बनावा लीजिए, हमारी तो पूरी की पूरी फैमिली बड़े आराम से इसमें सेटल हो जाएगी, एक कोने में चूल्हा रख लेंगे और दूसरे में पंलग, बचे दो कोने तो वहां मुन्ना-मुन्नी अपना स्टैडी कार्नर बना लेंगे। वैसे भी आजकल कार्नरस् का बड़ा क्रेज है। पीजा कार्नर, सूप कार्नर, फास्ट फूड कार्नर, छोले भटूरे कार्नर, डोसा कार्नर और तो और बड़े बाजार में बन रहे फाइव स्टार होटल का नाम भी डैडीसन्स कार्नर है। जब बड़े-बड़े लोग कार्नरस् में सेटल हो रहे हैं तो हमें भला क्या परेशानी?',
अब पत्नी को कैसे समझाऊं कि घर तो छोड़ो प्रिय, अगर जीवन भर की कमाई से हुई बचत को खींचतान कर भी जोडूं तो ऐसा गुसलखाना भी नहीं बनवा सकता। यहां तो यह सोच कर ही सिरदर्द से साथ पसीना छूट जाता है कि जीवन बीमा पॉलिसी की किस्त कहां से जुटाऊं, इस हिसाब से तो अपना घर बनाने की फिक्र मेरी जान ही ले लेगी। यहां तो हालत यह है कि मेरा मोबाइल फोन भी अधिकतर मेरी पत्नि ही अटेंड करती है। कारण यह है कि मैंने लगभग सभी दोस्तों और उनके भी दोस्तों से काफी उधार ले रखा है, सो तकाजे वालों के दिनभर फोन आते रहते हैं। पत्नी बड़ी ही आत्मीयता के साथ उनसे कह देती है कि,'वो अभी बाथरूम में हैं, आप बाद में फोन कर लीजिएगा प्लीज!' क्या करूं साहब, एक आम आदमी की हैसियत और अपने दफ्तर में धूस को धूंसा के अनुसरण के चलते अब बिना उधार लिए मेरी गृहस्थी की गाड़ी नहीं चलती और ज्यादातर मुझे 'बाथरूम' में ही रहना पड़ता है।
लीजिए फिर गुसलखाने का जिक्र आ गया। वैसे यह भी अपनी-अपनी किस्मत है जनाब, मैं एक कमरे का भी घर नहीं बनवा पा रहा और कुछ लोग अपना गुसलखाना तक डिजाइन करवाते हैं। उनके घर में हर कमरे से एक गुसलखाना अटेच होता है। उनके गुसलखानों से अपने किराए के पूरे घर की तुलना करते हुए भी शर्म आती है। एक मल्लिका का गुसलखाना था, एक मेरा गुसलखाना हैं, जहां बैठो तो पीछे दीवार टकराती है और उठो तो नल का टोंटी माथा फोड़ देती है। नहाते हुए साबुन हाथ से छूट जाए तो उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं, सीधे फ्लश में गिरता है। फिर बाकी के दिन सिर्फ पानी से ही नहाना पड़ता है क्योंकि पत्नी सात दिन से पहले नया साबुन नहीं निकालती। अपना घर बनाने के लिए बचत करने का कोई उपाय वह छोड़ना नहीं चाहती। आप इसे कंजूसी कह सकते हैं लेकिन मुझे अपनी पत्नी की बचत संबंधी इस सोच में कोई खोट नजर नहीं आता। दरअसल, मेरे दादाजी किराएदार ही जीये और किराएदार ही परलोक सिधारे। मेरे पिता ने भी इसी परंपरा की निर्वाह किया। अब अगर मेरी पत्नी चाहती है कि किराएदार होने के इस अभिशाप को तोड़ा जाए तो इसमें बुराई ही क्या है। हालांकि मैं उसे बहुत समझाता हूं कि प्राणप्रिय, कंक्रीट के तेजी से पनपते जंगल में सब कुछ इतना उलझा हुआ है कि तीस लाख तक के छोटे से मकान की दहलीज से ही सड़क शुरू हो जाती है, न बागवानी का सुख और न आंगन में सुस्ताने का विकल्प। कपड़े सुखाने के लिए अरगनी बांधने तक की जगह नहीं। कहीं-कहीं तो यह सुख पचास लाख के मकान में भी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन पत्नी है कि कुछ भी समझने को तैयार नहीं, उस पर तो जैसे अपना मकान बनाने की देवी आई हुईं हैं।
खैर साहब, अपना घर बनाना इतना मुश्किल भी नहीं है जितना लगता है। इधर अपने घर के बारे में सोचिए और उधर पलक छपकते ही आपका घर तैयार है। आप चाहे तो इस दीपावली पर लक्ष्मी पूजन भी अपने नए घर में ही कर सकते हैं। और केवल अपना घर ही क्यों, अपने और अपनी पत्नी के बाकी बचे जीवन के अलावा अपने बच्चों के भविष्य की चिंता भी अब आपको करने की जरूरत नहीं है। जी नहीं, यह मेरा नहीं बल्कि उन बैंकों का कहना है जो मुझे हाउसिंग लोन की तरह ही अपने और अपने परिवार के भविष्य को संवारने के लिए तमाम सारे लोन देने के लिए अधीर एवं आतुर बैठीं हैं। वह तो मैं ही दुर्भाग्यशाली हूं जो उनके सामने अपने इस दुनिया में होने के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पा रहा।

(8/10/2006 को 'जनसत्ता' रविवारी में प्रकाशित)

अनुराग मुस्कान: देख तेरे साहित्य की हालत क्या हो गई...(व्यंग्य)


सींगवाला गधा, धोबी की कुतिया और साहित्य
-अनुराग मुस्कान
रोमी गधा सूख-सूख कर कांटा हो चुका था। उसे न दिन को चैन था न रात को आराम। दरअसल रोमी गधे को लगता था कि उसका मालिक भीखू अपनी पालतू कुतिया लिली से मुहब्बत करता है। शक़ की कोई दवा नहीं है, नतीजतन लिली कुतिया का दीवाना रोमी गधा शराब की लत का शिकार हो जाता है। एक दिन लिली को खो देने के डर के हाथों मजबूर होकर रोमी अपने मालिक भीखू की हत्या का साज़िश रचता है। प्लॉन के मुताबिक दूसरे दिन सुबह घाट पर जाते समय रोमी, भीखू पर हमला कर देता है। इससे पहले कि भीखू कुछ समझ पाए रोमी गधे के बारह इंच लंबे सींग उसके पेट में होते हैं। अगले ही पल भीखू सड़क पर ढ़ेर हो चुका होता है। आख़िर रोमी अपने और लिली के बीच की दीवार गिरा ही देता है।
दरअसल उपरोक्त गंद्याश मेरी ताज़ा साहित्यिक कहानी का है। इस कहानी का नायक है एक गधा- रोमी गधा, कहानी की नायिका है- लिली कुतिया और इन दोनों का भोला-भाला मालिक भीखू धोबी एक ऐसी भूमिका में जो कहानी की मांग के हिसाब से गतलफ़हमी का शिकार बन जाता है। कहानी अभी पूरी भी नहीं हुई है और मेरे तमाम साहित्यिक मित्र इसके घनघोर आलोचक बन बैठे हैं। कहते हैं कि यह कहानी नहीं बल्कि मेरे पागलपन की निशानी है। मेरे आलोचकों की आंखों में इस कहानी को लेकर जो प्रमुख बिन्दु खटक रहे हैं वह इस प्रकार हैं- आपत्ति नंबर एक- गधे के सिर पर सींग?, आपत्ति नंबर दो- धोबी की कुतिया? आपत्ति नंबर तीन- कहानी को साहित्य का नाम देना।
यहां मैं अपने आलोचकों की सभी आपत्तियां दूर करना चाहता हूं। दरअसल गधे के सिर पर सींग ही तो मेरी कहानी का सबसे सशक्त प्रयोगात्मक पहलू है। गधे के सिर पर सींग अब कोई असामान्य कल्पना नहीं रही। मुझे लगता है कि सींग वाला गधा हैरी पॉटर कल्चर में स्वागत योग्य होगा। हैरी पॉटर की ही तरह लोग रोमी गधे को भी सिर आंखों पर बिठा लेंगे। सींग वाला गधा कलयुगी कहानी का नया सुपरस्टार होगा। मैंने लोगों की नब्ज़ पकड़ ली है। यह ज़माना तिलिस्म का जमाना है। लोग यथार्थ से दूर और जादू-टोने के करीब हैं। यहां लोग सिर उठा कर कोल्डड्रिंक पीते हैं। दूध, लस्सी, छाछ आदि भी सिर उठा कर पीने वाले लोग अब 'बोतलों' में उतर आये हैं। हाई क्लॉस सोसायटी में सिर्फ कोल्डड्रिंक ही सिर उठा कर पी जाती है, महंगा हो रहा दूध पीने की असमर्थता ने तो सिर झुका दिया है। हिप-हॉप सोसायटी में हैरी पॉटर, कोल्डड्रिंक और पिज़्ज़ा के तिलिस्म की रफ़्तार के साथ सींग वाला रोमी गधा भी सरपट दौड़ेगा। रोमी, रोमांच का नया नाम होगा। मुझे विशवास है, जिस समाज ने ही-मैन, सुपर-मैन, स्पॉइडर-मैन और हैरी पॉटर को सम्मानजनक स्थान प्रदान किया है वह मेरे रोमी को भी खारिज नहीं करेगा। पहले कहानी फिर उपन्यास और फिर फिल्म। धीरे-धीरे मैं रोमी को हैरी पॉटर का भारतीय संस्करण बना दूंगा।
कहानी के दमदार चरित्र भीखू धोबी की पालतू कुतिया लिली कहानी को नये प्रतिमान देगी। दरअसल लिली कुतिया मादा प्राथमिकता प्रावधान की मानसिकता का लाभ पा गई है। लेकिन कहानी में उसकी किरदार को लेकर मेरा मौलिक तर्क भी है। जानता हूं कि धोबी का कुत्ता होता है किन्तु धोबी के कुत्ते के पात्र में मुझे कोई स्कोप नज़र नहीं आया। धोबी का कुत्ता न घर का होता है न ही घाट का। इसलिये कुत्ते वाली भूमिका मैंने कुतिया को दे दी। मैं यहां अपनी कहानी में लिली की भूमिका की प्रशंसा करना चाहूंगा। पूरी कहानी में वह रोमी को इस बात का अहसास तक नहीं होने देती कि वह उससे नहीं बल्कि घाट के आवारा कुत्ते मोती से प्यार करती है। मेरी लिली घर की भी है और घाट की भी। घर पर रोमी की और घाट पर मोती की। कहानी में ट्विस्ट की आपको भी तारीफ़ करनी होगी की रोमी चूंकि पहले से ही गधा था इसलिये लिली, बेवफाई के अपराधबोध से स्वत: ही मुक्त होकर अपने मालिक भीखू की हत्या हो जाने के बाद मोती के साथ घाट पर गृहस्थिन हो लेती है।
कुल मिलाकर मेरी कहानी में एक्शन, थ्रिल, सस्पेन्स, रोमांस, इमोशन सब कुछ मौजूद है फिर भी उसकी आलोचना की जा रही है। वरना साहित्य के नाम पर क्या कुछ नहीं लिखा और बेचा जा रहा आजकल। ज़माना बदल गया है यारों। हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा का प्रवाह भी हल्का पड़ चुका है। यहां कुछ लोग भले ही बड़ी शान से सूमो चलाते हो लेकिन कुछ गरीबों को साईकिल रिक्शा भी किराये पर लेने के लिये एक आदमी की गारंटी नसीब नहीं होती। हम गंगा नहीं बचा पाये, हम विशवास नहीं बचा पाये, हम आत्म-सम्मान नहीं बचा पाये, हम चरित्र नहीं बचा पाये तो साहित्य कब तक बचा पायेंगे? बचा लें तो बड़ी बात है।